नई दिल्लीः नवगीत विधा को स्थापित और प्रतिष्ठित करने वाले रचनाकारों में से एक कुमार रवीन्द्र का साल के शुरुआती दिन ही निधन हो गया. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के लखनऊ में 10 जून, 1940 को हुआ था. वह हरियाणा के हिसार में अंग्रेजी के अध्यापक रहे और अपनी लेखनी से साहित्य को समृद्ध किया. उनकी कृतियों में आहत हैं वन, चेहरों के अंतरीप, पंख बिखरे रेत पर, सुनो तथागत और हमने सन्धियां की नवगीत संग्रह हैं, तो एक और कौंतेय, गाथा आहत संकल्पों की, अंगुलिमाल चर्चित काव्य नाटक. इसके अतिरिक्त उन्होंने गीत नवगीत की समीक्षा भी की. अंग्रेजी कविताओं का भी उनका एक संकलन प्रकाशित हुआ था. उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान तथा हरियाणा साहित्य अकादमी सहित दर्जनों सम्मान और पुरस्कार मिले थे.
उनके नवगीत हमेशा मानवीय सरोकारों से सराबोर रहे. एक बानगीः
इसी गली के आखिर में है
एक लखौरी ईंटों का घर
किस पुरखे ने था बनवाया
दादी को भी पता नहीं है
बसा रहा अब उजड़ रहा है
इसमें इसकी खता नहीं है
एक-एक कर लड़के सारे
निकल गए हैं इससे बाहर.
उनके निधन पर साहित्य जगत से जुड़े तमाम लोगों ने शोक जाहिर किया है. वरिष्ठ कवि और उनके मित्र रहे लक्ष्मी शंकर बाजपेयी ने तो श्रद्धांजलि स्वरूप उन्हीं की एक ग़ज़ल का शेर लिखा हैः
आइने में अक्स तक होना कठिन है
खिड़कियाँ हैं बंद- कोहरा भी गझिन है
रात-भर सूरज रहा अंधी गुफा में
इस शहर की हर सुबह ही धूप बिन है
बंद कमरे की हवा में साँस लेता
किसी पुरखे का अकेला जन्मदिन है
खाई ठोकर- हम गिरे हैं राजपथ पर
चलें कैसे- पाँव में तो चुभी पिन है…
अलविदा कुमार रवीन्द्र!