सोनभद्रः सोनांचल की धरती के यशस्वी लाल मुनीर बख्श आलम नहीं रहे. 80 वर्षीय मुनीर बख्श आलम सोनांचल की माटी की आवाज को समूचे हिंदी और उर्दू जगत तक पहुंचाने के लिए मशहूर थे.  मुनीर बख्श आलम के निधन का समाचार सुनते ही समूचे पूर्वांचल के साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई. उन्होंने अपने जीवनकाल में एक दर्जन से अधिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. अपनी साहित्यसेवा के लिए वह साहित्य गौरव, बहादुर शाह जफर सम्मान, सनातन गौरव सम्मान, स्वामी अवधेशानंद राष्ट्रीय साहित्य सम्मान जैसे पुरस्कारों से नवाजे गए थे. उनके निधन का समाचार सुनने के बाद सोनांचल के चर्चित पत्रकार, साहित्यकार व समाजसेवी नरेंद्र नीरव ने अपना दुख यों व्यक्त कियाः लगभग 9.30 बजे निजी फोन बोलने लगा. दो बार घंटियां बजीं. उठाने में कुछ देर हुई. विवश था. मैंने मिलाया. अजय शेखर थे. 'मुनीर नहीं रहे. अभी शिवेंद्र का फोन आया था.' 'जी' कह कर फोन रख दिया. स़ांध्य कालीन पूजा स्थगित. इस वक्त आलम साहब की यादें ही इबादत हैं. मैं यही सोच रहा हूं कि अजय शेखर पर क्या गुजर रही होगी. उन्हीं की पंक्तियां हैं-

देश गीता का हमारा, मृत्यु से क्या हमें डरना.
मृत्यु का मतलब यहां होता महज कपड़े बदलना.

परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद जी की विश्वप्रसिद्ध कृति 'यथार्थ गीता' का उर्दू अनवाद- हकीकी -गीता लिखने वाले आलम साहब संत स्वभाव के साहित्य साधक थे. उनका मन निर्मल और चेतना जाग्रत थी. वे निष्काम कर्मयोगी थे. उनकी उन्मुक्त आत्मा हमें सदैव संबल और मार्गदर्शन देती रहेगी. आलम साहब का जन्म 1जुलाई 1943 को सोनभद्र के गांव बनौरा में हुआ था. एमए, बीएड करने के बाद उन्होंने राजा शारदा महेश इंटर कालेज रावर्ट्सगंज तथा राजकीय इंटर मीडिएट कालेज चुर्क में पढ़ाया. वे कवि-सम्मेलन में श्रोताओं का दिल जीत लेते थे. कुशल मंच संचालक थे. गोष्ठियों, वार्ताओं में उनको सुनना हर बार नूतन आनंद होता था. सदैव मुस्कराते, पान खाने और खिलाने के शौकीन, शालीन और चुंबकीय व्यक्तित्व था आलम साहब का. उन्होंने आध्यात्मिक पत्रिका 'दिव्य-प्रभा' का संपादन किया. उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियां हैं- 'मैं भी सोचूं , तू भी सोच!' गजल-संग्रह; 'राहे हक', 'बादे सबा' और
काव्य-संग्रह 'हम रुके तो कारवां रुका', 'सिमटते कद'. आलम साहब देश के हर हिस्से में सम्मानित हुए. शोकांजलि! उनके देहांत से जो खालीपन पैदा हुआ है वह अपूरणीय है …'