नई दिल्लीः आनंद मोहन जुत्शी मूलतः कश्मीरी थे, लेकिन उनके जन्म और कर्म की धरती दिल्ली थी. इसीलिए इस कश्मीरी पंडित को अपनी सरजमीं से इतना लगाव हुआ कि अपना नाम ही रख लिया गुलज़ार देहलवी. वह उर्दू शायरी की एक जीती-जागती पाठशाला थे. दिल्ली में पिछले छ:-सात दशकों में शायद ही कोई ऐसा बड़ा मुशायरा रहा हो, जिसमें उनकी उपस्थिति न रही हो. वह फैज़ अहमद फैज़, अहमद फ़राज़, जोश मलिहाबादी, जिगर मुरादाबादी, फिराक़ गोरखपुरी, मजाज़ लखनवी, साहिर लुधियानवी, अली सरदार जाफरी जैसे शायरों के साथ मंच साझा कर चुके थे. आनंद मोहन जुत्शी का परिवार उन्नीसवीं सदी के आरंभ में दिल्ली आकर बस गया था. यहीं 7 जुलाई, 1926 को उनका जन्म हुआ और 94 साल की उम्र में निधन के समय तक उनका सब कुछ दिल्ली में दिल्ली का ही था. हालांकि काफी समय से वह अपने बेटे के पास नोएडा में थे, पर इसे भी वह दिल्ली का हिस्सा ही मानते थे. कोरोना से बीमार होने के बाद यहीं के अस्पताल में उनका इलाज भी हुआ, जिसमें ठीक होने के बाद उन्होंने अस्पताल के मेडिकल स्टाफ से कहा था कि आप लोगों ने नई जिंदगी दी है. पूरी तरह ठीक होने पर सभी को अपने घर खाने पर बुलाएंगे.
गुलज़ार देहलवी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति अटूट आस्था, बड़ों का सम्मान और छोटों के आगे बढ़ाने वाले शायर थे. इसीलिए उनके निधन से नए से लेकर पुराने शायर तक दुखी हो गए. चर्चित शायर प्रो वसीम बरेलवी का कहना था, उर्दू अदब और हिंदुस्तान की साझा संस्कृति का एक वाहक रुख़्सत हो गया. दिल्ली के हिंदू कॉलेज में नौकरी के दिनों मेरा ताल्लुकात उनसे बढ़ा. पुरानी दिल्ली के इलाकों में उनके साथ पूरा एक क़ाफ़िला रहता था. शायरी के मंच पर मेरे संघर्ष के दिनों में मुझे उनका बहुत साथ मिला. हमेशा हौसला अफ़जाई की. उनका जाना केवल एक भाषा ही नहीं, बल्कि हमारी तहजीबी विरासत का बड़ा नुकसान है. दिल्ली की रवायतों को जीने वाले शायर का नाम था गुलजार देहलवी. मंसूर उस्मानी ने भी उन्हें शिद्दत से याद करते हुए जिगर मुरादाबादी से उनके ताल्लुकात को याद किया. खास बात यह कि आनंद मोहन जुत्शी भारत सरकार द्वारा 1975 में प्रकाशित पहली उर्दू विज्ञान पत्रिका 'साइंस की दुनिया' के संपादक भी बने थे.