नई दिल्लीः रामवृक्ष बेनीपुरी हिंदी के ऐसे अनूठे रचनाकार थे, जिन्होंने श्रम को खूशबू से जोड़कर देखा था. हिंदी का शायद ही कोई ऐसा छात्र हो, जिसने उनका 'गेहूँ बनाम गुलाब' निबंध न पढ़ा हो. बेनपुरी जी के पास आंचलिकता के साथ गजब की विश्व दृष्टि थी. उनकी भाषा की सहजता, सुंदरता और जीवंतता यह बताती है, कि गद्य में भी कविताई हो सकती है. 'गेहूं बनाम गुलाब' की चंद शुरुआती पंक्तियां देखिए-गेहूं हम खाते हैं, गुलाब सूंघते हैं. एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है. गेहूं बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं- पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस? जब मानव पृथ्‍वी पर आया, भूख लेकर. क्षुधा, क्षुधा, पिपासा, पिपासा. क्‍या खाए, क्‍या पिए? मां के स्‍तनों को निचोड़ा, वृक्षों को झकझोरा, कीट-पतंग, पशु-पक्षी- कुछ न छुट पाए उससे! गेहूं- उसकी भूख का काफला आज गेहूं पर टूट पड़ा है? गेहूं उपजाओ, गेहूं उपजाओ, गेहूं उपजाओ! मैदान जोते जा रहे हैं, बाग उजाड़े जा रहे हैं- गेहूं के लिए. बेचारा गुलाब- भरी जवानी में सि‍सकियां ले रहा है. शरीर की आवश्‍यकता ने मानसिक वृत्तियों को कहीं कोने में डाल रक्‍खा है, दबा रक्‍खा है.ऐसा यों ही नहीं था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2017 भारत छोड़ो आंदोलन के 75 वर्ष पूरे होने पर संसद में आयोजित विशेष सत्र में विख्यात साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी और उनके चर्चित निबंध 'जंजीरें और दीवारें' का उल्लेख किया था.

दिनकर ने कभी कहा था, “स्वर्गीय पंडित रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे. उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी, जो कलम से निकलकर साहित्य बन जाती है. वे उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है. जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है. जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है. बेनीपुरीजी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रांतिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे.बेनपुरी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और आठ साल जेल में गुजारे थे. कहना समीचीन होगा कि बेनपुरी जी उस युग में पैदा हुए थे, जब जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे हिंदी के वरिष्ठ लेखकों की छाप से खड़ी बोली बन रही थी. हिंदी एक ऐसी भाषा के रूप में आगे बढ़ रही थी, जो कि जटिल और संस्कृतनिष्ठ थी. उस काल में बेनीपुरी की भाषा सहज, सधी और बेहद छोटे-छोटे वाक्यों से बनी सजीली भाषा थी. इसीलिए लोग उन्हें कलम का जादूगर कहते थे. बेनीपुरी की रचनाओं में छोटे वाक्य, दृश्य को नजरों के आगे जीवंत करने की क्षमता तो प्रेमचंद जैसी ही है, वहीं सरसता और सहजता उनसे ज्यादा दिखती है. रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म 23 दिसंबर, 1899 को मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर ग्राम के कृषक परिवार में हुआ था. उन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, रेखाचित्र, यात्रा विवरण में विपुल साहित्य रचा. उनकी प्रमुख रचनाओं में उपन्यास 'पतितों के देश में', 'आम्रपाली'; कहानी संग्रह 'माटी की मूरतें'; निबंध 'चिता के फूल', 'लाल तारा', 'कैदी की पत्नी', 'गेहूँ और गुलाब', 'जंजीरें और दीवारें'; नाटक 'सीता का मन', 'संघमित्रा', 'अमर ज्योति', 'तथागत', 'शकुंतला', 'रामराज्य', 'नेत्रदान', 'गांवों के देवता', 'नया समाज', 'विजेता', 'बैजू मामा' शामिल है. उन्होंने विद्यापति की पदावली का संपादन भी किया. उनका निधन 7 सितंबर, 1968 में हुआ.