व्यवसाय से डॉक्टर और दिल से घुमक्कड़ अजय सोडानी के यात्राओं के दौरान अर्जित अनुभव कविता, निबन्ध, छायाचित्र तथा कहानियों के रूप में देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित व प्रशंसित होते रहे हैं। दर्रा-दर्रा हिमालय के बाद उनकी हालिया प्रकाशित किताब है दरकते हिमालय पर दर-ब-दर| यह दुर्गम हिमालय का सिर्फ एक यात्रा-वृत्तान्त भर नहीं, बल्कि जीवन-मृत्यु के बड़े सवालों से जूझते हुए एक ऐतिहासिक यात्रा भी है। पुस्तक पढ़ते हुए बार-बार लेखक और उनकी सहधर्मिणी अपर्णा के जीवट और साहस पर आश्चर्य होता है। अव्वल तो मानसून के मौसम में कोई सामान्य पर्यटक इन दुर्गम स्थलों की यात्रा करता नहीं, करता भी है तो उसके बचने की सम्भावना कम ही होती है। ऐसे मौसम में खुद पहाड़ी लोग भी इन स्थानों को छोड़ देते हैं। लेकिन वह यात्रा भी क्या जिसमें जोखिम न हो। इसी ‘यात्रा’ के संदर्भ में अजय सोडानी जी से हुई चर्चा के कुछ अंश:

  • आपकी नज़र में यात्रा का क्या अर्थ है?

देखा जाये तो यात्रायें दो तरह की होती हैं| एक तो होती हैं तफरी के लिए, जो आप ‘जागतिक’ सुख के लिए करते हैं| क्षणिक ‘एनर्जी डोज़’ की तरह| जिसमें आप किसी जगह जाते हैं, घूमते फिरते हैं और अपने मैप में उसे मार्क करके एक ‘खानापूर्ति’ कर लेते हैं| और शायद ही उस जगह दोबारा जाना चाहे|

दूसरी यात्रा, जिसे मैं ‘यायावरी’ कहता हूँ, वो आपको सुख नहीं देती| वो आपको बेचैनी देती है| उस यात्रा में आपका कुदरत के साथ एक ऐसा रिश्ता बन जाता हैं, जैसे प्रियतम से| जिससे आप बार-बार मिलना चाहते हैं| और कुदरत में सिर्फ पेड़-पौधे, भँवरे और फूल ही नहीं समाज, संस्कृति भी शामिल है|

  • आपकी दोनों किताबें हिमालय’ की यात्रा से ही जुड़ी हैंइसका कोई ख़ास कारण?

जी, मेरी दोनों किताबें दरअसल अलग होते हुए भी आपस में जुड़ी हैं| हमने 16 वर्षों में कुल 25 यात्रायें की हैं और लगभग सभी पहाड़ों की हैं| इसका खास कारण है मिथक और पुराण के प्रति मेरा लगाव| हिन्दुस्तान की लगभग हर गाथा पहाड़ों से जुड़ी है| कालिदास का मेघदूत, वाल्मीकि की रामायण या वेदव्यास की महाभारत में कुछ ख़ास भौगोलिक संदर्भ हैं| उन्हीं भौगोलिक सन्दर्भों को मैंने आज के नक़्शे पर रखकर उन पर चलने का निर्णय किया| मैं चाहता था कि इन मिथकों का ऊपर उंचाई पर रहने वाले लोगों की दंतकथाओं से मिलान करके देखूं|

  • हिंदी में यात्रा वृतांत की कमी का क्या कारण है?

दरअसल 25 से 30 की आयु में युवाओं के पैरों में खुजली होने लगती है, और वो झोला उठाकर बाहर निकलने के लिए बेताब हो जाते हैं| लेकिन यही वो वर्ग भी है,जो हिंदी पढने में उतना सहज नहीं है| मैंने भी अपनी पहली किताब अंग्रेजी में ही लिखी थी, फिर हिंदी प्रेम के चलते उसका खुद अनुवाद किया और खुद को हिंदी में लिखने के लिए सहज बनाकर आगे का लेखन हिंदी में ही किया|

दूसरा कारण ये भी कहा जा सकता है कि हिंदी के अधिकांश यात्रा वृतांत स्केची हैं| उनमें डिटेलिंग की कमी महसूस होती है| राहुल संकृत्यायन, कृष्णनाथ जी, अमृत लाल वेगड़ और फिर अनुपम मिश्र जी के लेखन को अमरत्व देने में उनकी डिटेलिंग का ख़ास योगदान है| वैसा लेखन अब दिखाई नहीं पड़ता|

  • परिवार के साथ यात्रा करने के सकारात्मक और नकारात्मक पॉइंट्स?

नकारात्मक है ही नहीं, सब सकारात्मक है| मुझे नहीं लगता की जीवनसाथी से बेहतर कोई और साथी है| इससे प्लानिंग आसान हो जाती है| आप परिवार के और नजदीक आते हैं और सबसे बड़ी बात ऐसी यात्राओं से बच्चों का चरित्र निर्माण भी होता है| मेरी ज्यादातर यात्राओं पर मेरे साथ पत्नी के अलावा मेरा बेटा भी गया है|उसे वहां असली इंडिया को जानने का मौका मिला, जो हम ‘मॉल संस्कृति’ में बच्चों को नहीं दे पाते|