जागरण संवाददाता, वाराणसी : परतंत्र भारत में हिंदी के माथे की बिंदी बन उसे संरक्षित करने वाली नागरी प्रचारिणी सभा काशी का वैभव लौटेगा। प्रशासन की ओर से प्रबंध समिति विवाद को विराम देते हुए चुनाव के आदेश से यह उम्मीद जगी है। लंबे समय से प्रबंधकीय विवाद के कारण सभा परिसर में रखी गईं दुर्लभ पांडुलिपियों, शब्दकोष व ग्रंथों का समुचित संरक्षण नहीं हो पा रहा था। सभा की ओर से स्थापित आर्य भाषा पुस्तकालय में हजारों पत्र- पत्रिकाओं की फाइलें, लगभग 50 हजार हस्तलेख व हिंदी के अनुपलब्ध ग्रंथों का विशाल संग्रह है। सभा की ओर प्रकाशित शब्दकोश व अन्य ग्रंथ भी शामिल हैं।
डेढ़ दशक पहले तक ग्रंथालय में शोधार्थियों के साथ ही हिंदी प्रेमियों की बड़ी संख्या आती थी। विवाद के कारण संस्था से संबद्ध लोगों का ध्यान दूसरे कार्यों में लगा रहा। इस बीच गैर कानूनी तरीके से काबिज होने व निजी लाभ के लिए मनमाने ढंग से संस्था की मूल्यवान चल-अचल संपत्ति के दुरुपयोग के आरोप भी लगे। भटकाव के दौर में हिंदी सेवियों को सुविधा मिलनी लगभग बंद हो गई। संदर्भ के लिए कुछ देखने के लिए भी व्यवस्था से जुड़े लोगों से सिफारिश करनी होती थी।

 

धरी रह गईं साज-संवार की योजनाएं
यही नहीं इन सब कारणों से ही पिछले साल केंद्र व प्रदेश सरकार ने संरक्षण के लिहाज से पहल की तो इसमें भी पेच फंस गया। दरअसल, प्रदेश सरकार की ओर से इसमें भारतेंदु अकादमी खोलने की पहल की गई थी तो केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने सहेजी गई दुर्लभ पांडुलिपियों को संरक्षित करने के लिहाज से इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फार आर्ट की विशेष परियोजना के तहत सजाने-संवारने का खाका खींचा था।


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साल पुराना समृद्ध इतिहास
नागरी प्रचारिणी सभी के इतिहास पर गौर करें तो हिंदी को सम्मान दिलाने और प्रचार प्रसार के उद्देश्य से तब नौवीं के छात्र रहे बाबू श्यामसुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र व शिवकुमार सिंह ने वर्ष 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास को अध्यक्ष बनाया गया। उस समय इसकी बैठकें सप्तसागर के सभा घुड़साल में हुआ करती थीं। कुछ ही समय में संस्था के स्वतंत्र भवन ने आकार लिया और पहले ही साल में महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन, अंबिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे ख्यात विद्वान इससे जुड़ गए। सभा ने स्थापना के सात साल में ही हिंदी आंदोलन चलाया। इससे राजा- महाराजाओं समेत 60 हजार विशिष्टजनों को जोड़ते हुए न्यायालयों व सरकारी दफ्तरों में देवनागरी लिपि में हिंदी के प्रयोग की अनुमति का दबाव बनाया। पं. मदन मोहन मालवीय और बाबू श्यामसुंदर दास के नेतृत्व वाले इस आंदोलन को हिंदी का पहला सत्याग्रह माना गया और सभा के अनेक कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए।