नई दिल्लीः रज़ा फाउंडेशन द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्स के सभागार में द्वारा रज़ा फाउंडेशन की रज़ा पुस्तक माला के तहत ज्योतिष जोशी लिखित जैनेन्द्र कुमार की जीवनी 'अनासक्त आस्तिक' का लोकार्पण हुआ. इस पुस्तक को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. इसमें शामिल वक्ताओं महेश दर्पण, संजीव कुमार और उदय प्रकाश आदि ने पुस्तक की पठनीयता को सराहा और जैनेन्द्र को समझने के लिए इस पुस्तक को उपयोगी और महत्त्वपूर्ण प्रयत्न बताया. पुस्तक का कुछ अंश पढ़ा भी गया और उस पर चर्चा में कुछ आक्षेप भी आये. उन पर लेखक ज्योतिष जोशी ने अपना पक्ष रखते हुए विस्तार से बातें कहीं. उनका कहना था कि 'यह उचित कहा गया कि कलकत्ता कथा समारोह नवें दशक के आरंभ में न होकर पहले का है. यह सच है कि पुस्तक में भूलवश यह हुआ है. कलकत्ता कथा समारोह सातवें दशक के आरंभ में हुआ था. पर पुस्तक में विष्णु प्रभाकर द्वारा संपादित 'साक्षी हैं पीढ़ियां' के खण्ड 2 के पृष्ठ 97 से गिरिराज किशोर के जिस लेख का उद्धरण है, उसे देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह समारोह सातवें दशक के आरंभ का है. इसे अगले संस्करण में संशोधित कर दिया जाएगा. इसके अतिरिक्त जिन कमियों की तरफ इशारा किया गया है, उनके उत्तर स्वयं किताब के स्रोत के रूप में प्रयुक्त पुस्तकों- अकाल पुरुष गांधी, मेरे भटकाव, स्मृति पर्व, प्रेमचंद – एक कृति व्यक्तित्व और साक्षी हैं पीढ़ियां में मिल जाएंगे. पुस्तक में तथ्य और घटना सम्बन्धी स्रोत इन्हीं पुस्तकों से लिये गए हैं, पर वाक्य दर वाक्य प्रमाण की जरूरत नहीं होती न होनी चाहिए,
ज्योतिष जोशी का तर्क था कि जीवनी अंततः सम्बंधित लेखक के जीवन क्रम को एक व्यवस्था में बांधकर सुरुचि के साथ कथा में कहने की ही विधा है, अतः यह अभियोग का कारण नहीं है कि यह जीवनी उपन्यास का स्वरूप पा गई है. जीवनी इतिहास नहीं है, वह जीवन को तथ्यों के साथ रखकर सम्बंधित व्यक्ति के विकास को कथात्मक विन्यास देने का ही नाम है वरना वह जीवनी ही क्यों हो. यह भी ध्यान में रखने की बात है कि जिस लेखक में सम्बंधित व्यक्ति के जीवन और सोच में प्रवेश करने की क्षमता न होगी, वह कुछ भी और भले लिख ले, जीवनी तो नहीं लिख सकेगा. आक्षेप ही करना हो तो क्या कलम का सिपाही या आवारा मसीहा आलोचनाओं से परे हैं? क्या उनमें कथारस नहीं है? क्या उनमें जीवनीकार की अनुमेयता या कल्पनाशीलता नहीं है? खोजने ही चलें तो इन दोनों ख्यात जीवनियों में न जाने कितनी त्रुटियां मिल जाएंगी. उसमें भी मैं न तो अमृत राय हूँ और न विष्णु प्रभाकर. हूँ तो बस जैनेन्द्र का एक सामान्य अध्येता. उन्होंने आगे कहा कि दादा धर्माधिकारी ने जैनेन्द्र को 'गृहस्थ संन्यासी ' कहा था. एक सुझाव आया था कि जीवनी का यही नाम होता तो बेहतर था. मुझे कभी न लगा कि जैनेन्द्र सफल गृहस्थ रहे. गृहस्थी उनका विफल क्षेत्र रही. वे बराबर अपनी पारिवारिक विफलता को व्यक्त करते रहे, इसलिए यह नाम मुझे उपयुक्त न लगा. और संन्यास, तो शुद्ध अनुचित है. वे संन्यासी तो न थे क्योंकि जीवन जगत की माया में तो वे थे ही. प्रेमचंद के निधन पर एक संस्मरण में जैनेंद्र ने उन्हें नास्तिक संत कहा था. जब मैंने विचार किया तो लगा कि स्वयं जैनेंद्र संसार में होते हुए किसी भी प्रकार के लोभ लाभ से अनासक्त थे पर जीवन के प्रति आस्तिकता से भरे पूरे थे. यही कारण रहा कि जीवनी के बहाने मैंने स्वयं जैनेन्द्र को अनासक्त आस्तिक कहा. इस नाम के पीछे यही तर्क है.।
भारत विभाजन का प्रसंग हो या गांधी जी की हत्या का प्रसंग हो, या अपने निकट परिजनों की मृत्यु पर जैनेन्द्र की सोच का और उनके अंतर में चल रहे चिंतन की प्रामाणिकता का मामला हो, यह उनकी पुस्तकों के विशद अध्ययन और स्वयं उनकी मनः स्थिति को समझकर शब्दबद्ध किया गया है. किसी के मरने पर व्यक्ति के मन में जो चलता है, उसका कोई प्रमाण तो नहीं होता, यह तो सहज मानवीय समझ और अनुमान का विषय है. और यह अनुमान जैनेन्द्र की सोच के दायरे से बाहर नहीं है. इसी तरह भारत विभाजन से सम्बंधित प्रस्ताव के पारित होने पर उनकी सोच उनकी पुस्तक अकाल पुरुष गांधी में दर्ज है. यह तो अब स्पष्ट करने की कोई जरूरत रही नहीं कि गांधी से छुपाकर नेहरू, पटेल आदि नेताओं ने विभाजन को वायसराय के सामने स्वीकार कर लिया था. इस जीवनी में जैनेन्द्र की किताब 'मेरे भटकाव' से प्रामाणिक रूप में उद्धरित है और अखिल भारतीय कांग्रेस के इजलास में दिए गए नेहरू, पटेल और गांधी के भाषण भी दर्ज हैं. बावजूद इसके विभाजन पहेली कहां रह जाता है? विभाजन की इस भयावह दुर्घटना पर जो पीड़ा जीवनी में व्यक्त हुई है. वह जैनेन्द्र की है, इसे देखना हो तो उनकी किताब 'अकाल पुरुष गांधी' और 'मेरे भटकाव' को पढ़ना चाहिए. जोशी ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि वक्ताओं ने जीवनी की पठनीयता, उसकी भाषा, शिल्प तथा एक मूर्धन्य के रूप में जैनेन्द्र की प्रस्तुति को सराहा है.