छिंदवाड़ाः ख्यातिलब्ध कहानीकार और समांतर कहानी के पुरोधा हनुमंत मनगटे के निधन से मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई. मनगटे पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे. उन्होंने अपने लेखन से छिन्दवाड़ा की साहित्यिक परम्परा को आगे बढ़ाया और नयी पहचान दी. वे साहित्य की प्रगतिशील परंपरा की मशाल थामकर आगे बढ़े और नयी पीढ़ी को प्रगतिशील विचारधारा से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और शायद इस कारण ही छिन्दवाड़ा साहित्य जगत उन्हें बड़े प्यार से बाबा कहता था. 1 जुलाई, 1935 को छिंदवाड़ा में जन्मे हनुमंत मनगटे अपने लेखन में समय की छाप छोड़ते हैं, उनकी रचनाओं में सतपुड़ा की वादियों का यथार्थ है. उन्होंने 1978 में कहानी पर केंद्रित समांतर साहित्य सम्मेलन छिंदवाड़ा में आयोजित किया जो अपने आप में एक मिसाल रहा.
प्रगतिशील लेखक संघ, भारतीय जन नाट्य मंच और मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन से गहरे तक जुड़े मनगटे की चर्चित कृतियों में कहानी संग्रह 'सामना', 'फन', 'गवाह चश्मदीद', 'पूछो कमलेश्वर से'; उपन्यास 'समांतर', 'अंगरा'; व्यंग्य संग्रह 'शोक चिन्ह'; कविता संग्रह 'उर्वरा है वादियां सतपुड़ा की' और 'मरण पर्व' शामिल हैं. वे साठोत्तरी दशक की हिंदी कहानी के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर थे. मनगटे की कहानियां सामान्य जन के लिए प्रतिबद्ध और उनकी नियति और सपनों से संबद्ध हैं. वे मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार, दुष्यंत कुमार सुदीर्घ साधना सम्मान से सम्मानित थे और 'सम्मेलन' की कार्यकारिणी समिति के सदस्य भी थे. मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा है कि उनका जाना छिंदवाड़ा के साहित्य जगत के वट वृक्ष का गिर जाना है.