गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर की जन्मतिथि की तरह ही कि उनका जन्म 7 मई को हुआ था या 9 मई को, किसी से अगर यह पूछा जाए कि उनकी सबसे बड़ी कृति 'गीतांजलि' थी या 'शांति निकेतन' का कोई सटीक उत्तर नहीं है. रबींद्रनाथ टैगोर के लिए 'शांति निकेतन' एक जिद, जूनून और जीवन-लक्ष्य था. कहते हैं उन्होंने शांति निकेतन के बनने के दौरान क्रमशः पत्नी, पुत्री, पिता और पुत्र को खो बैठने के बावजूद शांतिनिकेतन के निर्माण का काम नहीं रोका. शिक्षा के मंदिर के लिए उनकी यह प्रतिबद्धता कई अर्थों में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के समतुल्य है. शांतिनिकेतन उनके परिवार की तरह था. गुरुदेव ने किसानों-काश्तकारों के जीवन में फैले अशिक्षा के अंधकार को दूर करने के लिए शांतिनिकेतन की स्थापना. गांव के जीवन को उन्होंने बहुत करीब से देखा था और वह यह मानते थे कि देश के विकास के लिए इन गरीब किसानों का विकास बहुत जरूरी है.
कहते हैं, जब पहली बार रबींद्रनाथ टैगोर ने अपनी पत्नी से शांति निकेतन के निर्माण का जिक्र किया तो वे हंस पड़ीं. उन्हें आश्चर्य था कि स्कूली शिक्षा से हद दर्जे तक भागनेवाला बच्चा आज खुद स्कूल खोलने की बात कर रहा था. टैगोर ने तब कहा था कि वे बंद कोठरियों और कमरों में छड़ी के दम पर बच्चों को सबक रटाए जाने वाला स्कूल नहीं, वृक्षों के साए तले व्यवहारिक शिक्षा देनेवाले स्कूल की बात कर रहे. साल 1907 में शांतिनिकेतन के माध्यम से टैगोर ने अपने विचार को अमली जामा भी पहना दिया था. यही शांतिनिकेतन 1921 में विश्वभारती बन गया. शांतिनिकेतन से रबींद्रनाथ टैगोर के इसी लगाव के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें 'गुरुदेव' यानी गुरुओं के गुरु, गुरुओं के भी आराध्य, गुरुओं के देवता की उपाधि दी थी.