गुरमीत बेदी का दूसरा कविता संग्रह 'मेरी ही कोई आकृति' भावना प्रकाशन दिल्ली से छप कर आया था, जिसकी भूमिका लीलाधर जगुड़ी ने लिखी है. जर्मनी की कवियत्री रोजविटा ने अब इस संग्रह का जर्मन में अनुवाद किया है और शीघ्र ही यह जर्मनी के काव्य प्रेमियों के हाथ में होगा. रोजविटा जर्मनी के विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं. उन्होंने इस संकलन को अनुवाद के लिए क्यों चुना? के जवाब में गुरमीत बेदी का कहना है, रोजविटा से मेरी मुलाकात 1996 में हुई थी, जब मैं भारत जर्मन चंगर प्रोजेक्ट पालमपुर में पब्लिक रिलेशंस ऑफिसर के रुप में तैनात था और रोजविटा जर्मन से एक शोधार्थी के रूप में इस प्रोजेक्ट का अध्ययन करने आईं थीं. रोजविटा अंग्रेजी व जर्मनी में कविताएं भी लिखती थीं और हिंदी भी बोल लेती थीं. रोजविटा की दो अंग्रेजी कविताओं का जब मैंने हिंदी में अनुवाद करके उन्हें सुनाया तो वह रोमांचित हो उठीं. उनकी कविताओं में प्रकृति के तमाम रंग थे और प्रेम की ताजगी भी. बाद में रोजविटा ने जर्मनी में आयोजित वर्ल्ड पोएट्री फेस्टिवल में 'द पोएट्स' सोसाइटी की तरफ से मुझे आमंत्रित भी किया गया था और उन्हीं के निमंत्रण पर दो साल पहले मैं मॉरीशस के पोएट्री फेस्टिवल में भी गया. रोजविटा ने पूरी किताब के अनुवाद से पहले बेदी की कुछ कविताओं को जर्मन में अनूदित करके अपने विद्यार्थियों को सुनाया और उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणी के बाद पूरे संकलन का अनुवाद जर्मन में प्रकाशित कराने का फैसला किया.
जागरण हिंदी की ओर से गुरमीत बेदी को हार्दिक बधाई और पाठकों के लिए उनकी एक कविताः
हो सके तो
तुम्हारे पास जितने भी रंग हैं
और जितनी कल्पनाएँ
तुम इस कैनवस पर उड़ेल दो इन्हें
मैं कोई एक रंग चुनकर
किसी सपने में भर लूँगा
मैं जब भी खुद को पाऊँगा किसी वीराने में
तुम्हारी किसी कल्पना की उँगली थाम
शामिल हो जाऊँगा उस उड़ान में
तब मैं अकेला नहीं हूँगा
मेरे साथ होगी तुम्हारी पदचाप
तुम्हारी हँसी-ठिठोली
तुम्हारी स्वर लहरियाँ
और सबसे बढ़कर तुम्हारी धड़कनों का संगीत
जब भी किसी घाटी के शिखर पर चढ़ते हुए
तेज हवाएँ मुझे नीचे धकेलने को दिखेंगी आतुर
मैं इस कैनवस पर से ही एक उड़नखटोला उठाऊँगा
और हवा में तैरते हुए शिखर पर जा विराजूँगा
जब भी मुझे लगेगा
मौसम के झंझावातों ने
फीके कर दिए हैं धरती से तमाम रंग
इस कैनवस से उठाकर रंग
मैं हवा में बिखेर दूँगा
इसी कैनवस से उठाकर खुशियाँ
मैं फुटपाथों पर बसी झुग्गी झोपड़ियों में जाऊँगा
जहाँ बरसों से हवा में नहीं गूँजा कोई गीत
अगर तुम इस कैनवस पर
पंछियों का सदाबहार राग
और चहचहाहट भर दोगी
तो हवाएँ कभी नहीं होंगी बोझिल
हो सके तो।