नई दिल्ली: हिंदी साहित्य का इतिहास अध्ययन की नई दृष्टि व्याख्यानमाला में 'खड़ी बोली कविता की जमीन और द्विवेदी युग' विषय पर बोलते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह ने कहा कि खड़ी बोली कविता की जमीन बहुत व्यापक और संश्लिष्ट है. इसके कई स्वरूप और परंपराएं हैं. एक परंपरा अमीर खुसरो, कबीर से होते हुए नजीर अकबराबादी और बाद में आधुनिक कालीन कवियों तक जुड़ती है. एक परंपरा दक्खिनी हिंदी की है और अन्य परंपराओं में लोक की एक परंपरा है, जो खड़ी बोली हिंदी कविता की जमीन को विकसित करती है. आधुनिक खड़ी बोली कविता की जमीन मध्य युग के हिंदी उर्दू कवि नजीर अकबराबादी से देखा जा सकता है. ब्रजभाषा, खड़ी बोली, उर्दू की जन भाषा को वह अपनी कविता में रूपायित करते हैं.
वाणी प्रकाशन के सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर 'हिंदी साहित्य का इतिहास अध्ययन की नई दृष्टि' व्याख्यानमाला श्रृंखला में बोलते हुए प्रो प्रभाकर सिंह ने आगे कहा कि खड़ी बोली कविता की जमीन में अट्ठारह सौ पच्चासी से उन्नीस सौ के बीच का समय बेहद महत्त्व का है. इस बीच खड़ी बोली बनाम ब्रजभाषा के विवाद में अयोध्या प्रसाद खत्री का हस्तक्षेप बेहद महत्त्वपूर्ण है. वह हिंदी खड़ी बोली की ऐसी जमीन बनाते हैं जिसमें वह हिंदी नवजागरण और उर्दू कविता के निकट हैं. इसको वह मुंशी स्टाइल की कविता कहते हैं. महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के माध्यम से खड़ी बोली कविता को और भी मजबूती प्रदान करते हैं. इस रूप में खड़ी बोली कविता की जमीन बहुत व्यापक और बहुलतावादी है. वाणी प्रकाशन की अदिति माहेश्वरी का कहना है कि समूह की इस पहल की हर ओर सराहना हो रही है.