कोरोना काल जो न करा दे. सोशल मीडिया पर साहित्य के भोपूं गैर साहित्यिक चर्चाओं में लिप्त हैं ऐसे में कवि शमशेर बहादुर सिंह की पुण्यतिथि आई और चली गई और कहीं उनकी कोई खास चर्चा नहीं हुई. खास बात यह कि जिस मार्क्सवाद को वह भारतीय संदर्भ में जोड़ते, तौलते रहे, उन्हीं मार्क्सवादियों ने भी उन्हें याद करने की जहमत नहीं उठाई, शायद इसलिए भी कि शमशेर बहादुर सिंह मा‌र्क्सवाद की क्रांतिकारी आस्था और भारत की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा में कोई टकराव नहीं देखते थे. हिंदी में 'कवियों के कवि' के रूप में मशहूर शमशेर बहादुर सिंह आजीवन प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े रहे. उन्होंने प्रेम के विराट बिंब रचे. छायावाद के बाद के काल में दैहिक सौंदर्य की जो छवियां शमशेर ने रचीं वैसी शायद ही किसी ने रची हों. ये कहना है हिंदी की युवा कवयित्री रचना का। उनकी पुण्यतिथि 12 मई पर उनकी एक कविता पेश है – धूप कोठरी के आइने में खड़ी
धूप कोठरी के आइने में खड़ी
हँस रही है..
पारदर्शी धूप के पर्दे
मुस्कराते
मौन आँगन में…
मोम-सा पीला
बहुत कोमल नभ…
एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को
बहुत नन्हा फूल
उड़ गई…
आज बचपन का
उदास माँ का मुख
याद आता है…