हिंदी और उर्दू ही नहीं किसी भी भाषा के विकास में लोक संगीत का महत्त्व सर्वविदित है. आज सूफी शैली के प्रसिद्ध कव्वाल नुसरत फतेह अली खान का जन्मदिन है. ऐसे में हम उनकी याद के साथ-साथ भाषा की लोकप्रियता में कव्वाली की भूमिका को भी देखते हैं. अनुमान है कि कव्वाली ईरान-अफगानिस्तान से लगभग तेरह सौ से सात सौ साल के काल में लोक संगीत के रूप में पनपी और अपनी लोकप्रियता के चलते स्थान और भाषा विशेष की बांध तोड़ते हुए भारत तक आ पहुंची. शुरू में सूफी संतों ने अमन और सच्चाई का पैगाम पहुंचाने के लिए मौसिकी और समा का सहारा लिया था. साज जुड़े तो शोहरत बुलंदी को छूने लगी. भारत में भी सूफी संतों ने ही कव्वाली को लोकप्रिय बनाया. इसमें चिश्ती संत शेख निजामुद्दीन औलिया और उनके बाद अमीर खुसरो का बड़ा योगदान था. इन दोनों ने भारतीय संगीत और लोक भाषाओं का समायोजन करके कव्वाली को अपने समय की संगीत की एक विकसित और लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित कर दिया. सुर, साज, संगत और रुहानी अल्फाज…कहते हैं प्रार्थना, भजन की तरह कव्वाली में भी शब्दों का ही असली खेल है. कव्वाली में एक ही शब्दों और वाक्यों को अलग-अलग तरीके से निखारकर गाया जाता है. खूबी यह कि हर बार किसी विशेष स्थान पर ध्यान केंद्रित करने से अलग-अलग भाव सामने आते हैं. जैसे-जैसे कव्वाल शब्दों को दोहराते हैं शब्द बेमानी होते जाते हैं और सुनने वाले के लिए एक पुरसुकून अहसास बाकी रह जाता है. कव्वाली की कामयाबी का चरम यही है. कव्वाली केवल गायन पद्धति नहीं, सैकड़ों साल पुरानी परंपरा और संतों को न्योता देने की परंपरा का हिस्सा रही है. मंच पर बैठे कव्वालों में भी वरिष्ठता का खास ध्यान, सबसे वरिष्ठ सबसे दाएं और इसी तरह घटता हुआ क्रम, इसके बाद मुख्य कव्वाल आलाप के साथ कव्वाली का पहला छंद गाते हैं. ये या तो अल्लाह की शान में होता है या सूफी रहस्य लिए. अमीर खुसरो, बुल्ले शाह, बाबा फरीद, ख्वाजा गुलाम फरीद, हजरत सुल्तान बाहू, वारिस शाह से होते हुए इस्माइल आजाद, आगा सरवर, शकीला बानो भोपाली, अजीज नाजां, यूसुफ आजाद, राशिदा खातून, उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने कव्वाली को जनता के दिलों की धड़कन बना दिया.
नुसरत फतेह अली खान हमारे दौर में कव्वाली की सबसे दमदार आवाजों में से एक थे. 13 अक्टूबर, 1948 को पंजाब के फैसलाबाद में कव्वालों के घराने में उनका जन्म हुआ था. नुसरत फतेह अली खान के पिता उस्ताद फतेह अली खां साहब स्वयं बहुत मशहूर कव्वाल थे, पर वह नहीं चाहते थे कि उनका बेटा कव्वाल बने. अपने खानदान की 600 सालों से चली आ रही परंपरा को तोड़ने की पिता की इच्छा के बावजूद नुसरत ने उसी रास्ते पर चलने का फैसला किया. और उनका यह फैसला कितना उचित था, इसे ऐसे समझा जा सकता है कि आज नुसरत फतेह अली खान की कामयाबी का जिक्र पूरी दुनिया में है. नुसरत फतेह अली खान की आवाज का जादू न केवल पाकिस्तान और भारत की संगीत की महफिल में दिखता रहा बल्कि बॉलीवुड भी उसके असर से बच नहीं पाया. कहते हैं बॉलीवुड में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसने उनकी आवाज के जादू के लोहे को न माना हो. इसीलिए फिल्मकारों को जब भी मौका मिला उन्होंने नुसरत फतेह अली खान से गाने गंवाए. कहा तो यह भी जाता है कि कुछ फिल्में तो उनके गाए गानों के दम पर चलीं. नुसरत फतेह अली खान को कव्वाली ने पाकिस्तान – भारत की सरहद तोड़कर अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया आदि तक पहुंच बनाई. उनके गाए तमाम गानों में से सांवरे तोरे बिन जिया जाए न', 'अल्लाह हू अल्लाह हू', 'इस शाने करम का क्या कहना', 'आफरीन आफरीन', 'ये जो हल्का हलका सुरूर है', 'मेरे रश्के कमर', 'मेरा पिया घर आया', 'सान्नू एक पल चैन न आए', 'किन्ना सोना' आदि भूलना असंभव है. इन फिल्मी गीतों के अलावा उन्होंने 'दयारे इश्क में अपना मकाम पैदा कर', 'तुम इक गोरखधंधा हो', 'दमादम मस्त क़लन्दर', 'हिजाब को बेनकाब होना था', 'छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिला के', ' हुस्नेजाना की तारीफ मुमकिन नहीं,' 'आपसे मिलकर हम कुछ बदल से गए', 'हम अपने शाम को जब नज़रे जाम करते हैं' और 'तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी' जैसे गानों से एक खास मुकाम हासिल कर लिया था. अफसोस की 16 अगस्त,1997 को महज 48 साल की उम्र में इस मशहूर फनकार ने दुनिया को अलविदा कह दिया.