विजय आनन्द बिहार के पंडारक रंगमंच की युवा पीढी का एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। पंडारक गांव में पिछले 100 वर्षों से नाटकों की परंपरा है । जहां कई पीढियां सक्रिय रही हैं। इस गांव में पृथ्वीराज कपूर, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी सरीखे नामचीन हस्तियों का आना हो चुका है। विजय आनंद ने हाल में अपनी निजी जमीन दान कर एक कला भवन का निर्माण कराया है। उनसे बातचीत के आधार पर ये आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं अनीश अंकुर :
नाटक की शुरुआत स्कूल के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों से हुई । सबसे पहले गाँव में वार्षिक नाट्य महोत्सव में 1996 में प्रथम मंचीय नाटक "बजे डिंढोरा " एवं मैला आँचल " में छोटी भूमिकायें निभाई थी। उसके बाद पढ़ाई-लिखाई के क्रम में पटना जाना पड़ा। इसके उपरांत पटना के तमाम रंगकर्मियों के साथ मेरी घनिष्ठता बढ़ती गई । ग्रामीण स्तर पर और शहरों में भी बार-बार मंचन करने का मौका मिलता गया । जिसमें पटना के तमाम नाट्य उत्सव्व के साथ-साथ "भारत रंग महोत्सव " में भी शामिल हुआ। रंग निर्देशकों में परवेज अख्तर की डिक्शन पर पकड़ एवं संजय उपाध्याय की संगीतमय प्रस्तुति ने मुझे प्रभावित किया ।
इस बीच मेरा चुनाव 'आकाशवाणी पटना' के 'ग्रेडेड नाट्य कलाकार' के रूप में हुआ । 'दूरदर्शन' 'ईटीवी' आदि के सीरियल एवं टेलीफिल्मों में काम करने का मौका मिला । 'एन एस डी' के वर्कशॉप में 1999 में शामिल होने का मौका मिला । हबीब तनवीर रचित 'देख रहे हैं नैन' में मुख्य भूमिका मिली । तब से लगातार पटना की संस्थाओं ' प्राची' , थियेटर यूनिट, निर्माण कला मंच के माध्यम से 'बाजे डिढोरा 'उर्फ 'खून का रंग' , 'मैला आँचल', 'सैंया भये कोतवाल' , 'अमली' , 'धर्मराज की अदालत' , 'अधर्म युद्ध' , 'दुलारीबाई' , 'खेला पोलमपुर', 'खुबसूरत बहु', 'बेटी बेचवा' , 'सुरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत' सरीखे 50 रंगमंचीय नाटक एवं 100 नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन के साथ-साथ 30 से ज्यादा मंचीय और नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन कर चुका हूँ ।
पण्डारक रंगमंच की एक अलग परम्परा थी जिसमें पारसी थियेटर, ऐतिहासिक नाटकों के मंचन एवं ग्रामीण परिवेश के समाजिक नाटकों का मंचन होता था जिसके लेखक बिहार के होते थे। उन नाटकों का बोलबाला था। पृथ्वीराज कपूर का आना, राष्ट्रकवि दिनकर का उसमें भाग लेना, रामवृक्ष बेनीपुरी की सहभागिता ये सब बातें पण्डारक रंगमंच को लेकर मेरे जेहन में थी । पण्डारक गांव में मंचन के पूर्वाभ्यास का घोर अभाव था। पूर्वाभ्यास किसी स्कूल में या किसी सामुदायिक भवन में या संस्था के संचालक के दरवाजे पर होता था । कभी कभी स्कूल, सामुदायिक भवन में सामाजिक कार्यों के चलते पूर्वाभ्यास पर असर पड़ता था। संचालक के दरवाजे पर ढोल नगाड़े देर रात्रि तक बजने से पारिवारिक व्यवधान होता था।
इन सबको ध्यान में रखते हुए एक 'कला भवन ' की योजना मेरे मन में आकार लेने लगी। इसमें सभी साथी कलाकारों ने भरपूर साथ दिया उन्हीं लोगों ने मेरे साथ मेरे पिताजी से बात की और उन्होंने इस प्सरस्हताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया और एन एच – 31 स्थित बेशकीमती जमीन संस्थान को दान में दे दी। राष्ट्रीय स्तर पर अब 'पुण्यार्क कला निकेतन ', पंडारक को पहचान मिलने लगी है। कला भवन में नाट्य पुस्तकों के लिए पुस्तकालय की योजना एवं अतिथि कलाकारों के लिए ठहराने की व्यवस्था हो सके इसके लिए कोशिश जारी है।