कोरोना काल में साहित्य जगत भी अपने-अपने ढंग से अक्षरों की आहुति चढ़ा रहा है.खासकर फेसबुक पर तो प्रवासी मजदूरों और कोरोना वारियर्स को लेकर अपने-अपने ढंग से लगे हैं. इन्हीं में कला मर्मज्ञ, अध्येता डॉ सच्चिदानंद जोशी भी शामिल हैं, जो सपरिवार अपनी सक्रिय भूमिका से संकट के इस समय में उर्जा भर रहे. अभी पिछले दिनों ही उन्होंने 'बिना आवाज़ की ताली' नामक गीत न केवल सृजित किया, बल्कि उसे सोशल मीडिया पर शेयर भी किया. इस वीडियो को अपलोड करते हुए उन्होंने लिखा, “हम सब #covid19 के प्रकोप से जूझ रहे हैं. अपने संयम, संकल्प और सहकार से हम सब मिलकर उसका मुकाबला कर रहे हैं. इस लॉक डाउन यानी ग्रहवास के कारण हममें से अधिकांश का जीवन गणित गड़बड़ा गया है. उसे कब, कैसे और कितना सुधारा जाएगा कोई नहीं जानता. हम ही में से कई कलाकार ऐसे भी हैं जिनके घर हमारे मनोरंजन से चलते हैं. ये कलाकार नामचीन नहीं है. लेकिन उनके बिना हम उन कला प्रदर्शनों की कल्पना भी नहीं कर सकते. वो रोज काम करते हैं और रोज कमाते हैं. उसी पर उनकी आजीविका चलती है, उनका परिवार पलता है. लॉक डाउन में वो सब घर पर बैठे हैं. कब तक रहेंगे पता नहीं. जिन आवश्यक सेवाओं का उल्लेख होता है, उनमें इनके काम शुमार नहीं होते. वे गाते हैं, कोई वाद्य बजाते हैं, नृत्य करते हैं, लाइट, मेकअप करते हैं, स्टेज बनाते हैं. ये सब काम कब शुरू हो पाएंगे पता नहीं. जब होंगे तो किस स्वरूप में होंगे ये भी पता नहीं, और जब होंगे तब क्या हम लोग उसी उत्साह से उनका प्रदर्शन देखने जाएंगे ये भी पता नहीं.

इस सबके बावजूद वो हमारे चेहरे पर खुशी लाने के लिए, हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं. जो कोई उनसे जो कुछ भी करने को कहता है वो कर रहे हैं. वो चाहते हैं कि हम सबका हौसला बना रहे और हमारे अंदर इस महामारी से जूझने की शक्ति बनी रहे. वो सब कलाकार हैं और अपना आत्मसम्मान बनाये रखते हुए देश की सेवा करना चाहते हैं. इसलिए शायद वो मुफ्त में बंटने वाला राशन भी नहीं ले पाते. इधर ऑनलाइन मनोरंजन ने अपनी एक नई दुनिया बना ली है. एक नई आदत बना ली है. सवाल ये भी है कि जब सब कुछ प्रायः प्रायः मुफ्त और घर बैठे मिलेगा तो थिएटर कौन जाएगा. कोरोना वारियर्स के रूप में हम डॉक्टर, पैरा मेडिकल स्टाफ, वैज्ञानिक, सुरक्षा कर्मी, सफाई कर्मी, प्रशासन सभी का सम्मान करते हैं. उनकी शान में स्तुति गान करने भी हम कलाकारों को ही बुलाते हैं. लेकिन उन्हें हम वारियर्स नहीं मानते . उन्हें हम आवश्यक सेवा भी नहीं मानते. क्या हमने कभी इस दृष्टिकोण से सोचा है उनके बारे में. हम इस बारे में सोचे और हो सकें तो कुछ करें, यही विचार ये कविता 'बिना आवाज़ की ताली' रचते समय आये. सहधर्मिणी मालविका जोशी जी ने इसमें अभिनय किया है, और पुत्र दुष्यंत ने इसका फिल्मांकन.