ऐसे दौर में जब कोरोना ने सामाजिक और भौतिक तौर पर लोगों को इकट्ठा होने से रोक दिया है , तब सोशल मीडिया कई मामलों में लोगों को जोड़ रहा है. खासकर अपने कलाकारों , साहित्यकारों के योगदान को याद करने के मामले में. अभी जब कुमार गंधर्व की जयंती आयी तो संगीतरसिकों ने उनके जीवन को शिद्दत से याद किया. अव्यक्त ने हम परदेसी पंछी बाबा नाम से एक लंबी टिप्पणी लिखी. जिसमें लिखा कि कुमार साहब को जन्म की जगह मृत्यु का राग ज्यादा आह्लादित करता था. नाथपंथियों के निर्गुण में , खासकर कबीर में , मृत्यु को लेकर जो निर्भयता , जो सहजता दिखती है , वैसी ही सधुक्कड़ी निर्मोहिता कुमार साहब के जीवन और गायन में भी दिखती थी.उनके शास्त्रीय गायन में भी वही कबिराहा तान प्रकट दिखता है. कुमार गंधर्व ने मालवा के नाथ-योगियों और आमजनों के कंठ से गूंजती कबीर-वाणियों को सीखना-समझना शुरू किया. प्रकृति ने उन्हें मानो इसीलिए देवास भेजा था.नाथपंथी बाबा शीलनाथ 1901 से लेकर 1920 तक बीस साल देवास में रहे थे. शीलनाथ निर्गुण भजनों में डूबे रहनेवालों में से थे. उन्होंने कबीर भजनों का एक संग्रह तक छपवाया था. कहा जाता है कि शीलनाथ जब प्राण त्याग रहे थे तो उन्होंने अपने एक चेले से , ‘ हम परदेसी पंछी बाबा अणी देस रा नाहीं… सुना था.

देवास में कुमार गंधर्व शीलनाथ बाबा की धुनी पर रात को आकर बैठते और घुमक्कड़ योगियों के साथ कबीर भजन गाते और सुनते थे. प्रभाष जोशी ने भी कुमार गंधर्व पर लिखे अपने संस्मरण का शीर्षक ही रखा थाहम परदेसी पंछी बाबा‘. उन्होंने लिखा था, “कुमार गंधर्व की इच्छा थी कि जब वे इस देस से अपने देस की ओर उड़ चलें तो उनके शिष्य यह भजन गा रहे हों और इसे सुनते-सुनते ही उनके प्राण पखेरू उड़ जाएं-

मुख बिन गाना पग बिन चलना, बिना पंख उड़ जाई
बिना मोह की सुरत हमारी, अनहद में रम जाई

भाई संतो! अणी देस रा नाहीं, हम परदेसी पंछी बाबा…

ऐसा हो सका कि नहीं, यह नहीं माhiलूम. लेकिन 1992 में जब कुमार साहब हंसादेस को उड़ चले, तो उनके दाह-संस्कार के समय एक स्थानीय लोक मंडली आत्मप्रेरणा से वहां आ पहुंची और केवल झांझ-मंजीरे और करताल पर भाव-विभोर होकर गाने लगी-
छाया बैठू अगनि बियापै, धूप अधिक सितलाई,
छाया धूप से सतगुरु न्यारा, हम सतगुरु के माहीं,
हम परदेसी पंछी बाबा अणी देस रा नाहीं.

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