नई दिल्लीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा शृंखला के तहत 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' व्याख्यानमाला जारी है. इस व्याख्यानमाला के तहत दसवां व्याख्यान सुपरिचित आलोचक सन्तोष भदौरिया ने 'हिंदी-उर्दू की साझा विरासत' पर दिया. देश में साझा विरासत की अवधारणा पर विस्तार से बातचीत करते हुए उन्होंने भारत की समृद्ध परंपरा को तथ्यपरक तरीके से विवेचित किया. उन्होंने तर्क दिया कि विदेशी धर्मों की उपेक्षा, आज़ादी के मूल्यों की अनदेखी और साम्प्रदायिक संकीर्णता के चलते हमने साझा विरासत की ताक़त को कमज़ोर किया है. साहित्य में अमीर खुसरो से लेकर कबीर, तुलसी रसखान, घनानन्द, सौदा,  नज़ीर अकबराबादी, ग़ालिब, भारतेन्दु, निराला, प्रेमचन्द से होते हुए हरिवंश राय बच्चन और केदारनाथ सिंह, शमशेर, दुष्यन्त की रचनाओं में इस साझी विरासत को देखा जा सकता है.
अपनी बात को और विस्तार देते हुए सन्तोष भदौरिया ने सूफ़ी कविता की समृद्ध विरासत की तो चर्चा की ही यह दावा भी किया कि वली दखनी के साहित्य में इस विरासत की मज़बूती को देखा जा सकता है. उनका कहना था कि ब्रिटिश शासन के दौरान अर्थात औपनिवेशिक युग में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के साथ हिंदी-उर्दू भाषा के बहाने हिन्दू और मुसलमान में फूट डालने की साज़िश हुई और यह विभाजन औपनिवेशिक युग की देन है. उनका तर्क था कि स्वाधीनता आन्दोलन विशेषकर अट्ठारह सौ सत्तावन का महासंग्राम हिंदी-उर्दू की साझा विरासत का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ है. इसी तरह मध्यकाल में मुग़ल बादशाहों का हिंदी प्रेम साहित्य में दर्ज है. कविता के साथ कथा साहित्य में इस साझी विरासत को बख़ूबी देखा जा सकता है. 90 के बाद का दौर उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद और वैश्वीकरण की संस्कृति ने साझी विरासत को और अधिक नुकसान पहुंचाया है. साहित्य और कलाएं न केवल हमें राजनीति और धर्म की संकीर्ण चेतना से उबारने में मदद करती हैं, बल्कि हमें भारत की साझी संस्कृति के साथ जीने की कला भी सिखाती हैं और यही हमारी ताक़त है.