'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना', 'होठों पर सच्चाई रहती है जहां दिल में सफाई रहती है', 'मेरा जूता है जापानी,' 'आज फिर जीने की तमन्ना है', 'दिल के झरोखे में तुझको बिठा कर', 'पिया तोसे नैना लागे रे', 'खोया खोया चांद खुला आसमान' और 'अजीब दास्तां है ये कहां शुरू कहां खतम' जैसे दर्जनों यादगार फ़िल्मी गीतों के जनक गीतकार शैलेंद्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था. उनका जन्म 30 अगस्त, 1923 रावलपिंडी में हुआ था. यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि हिंदी फिल्मों के इस महान गीतकार का फिल्मों के लिए लिखना भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. शैलेंद्र ने हाईस्कूल तक की पढ़ाई उत्तर प्रदेश के मथुरा में करने के बाद वह रेलवे वर्कशाप में नौकरी कर ली. इसी सिलसिले में साल 1942 में वह बंबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने गए, पर महात्मा गांधी के आह्वान पर 'भारत छोड़ो आंदोलन' में शामिल हो जेल चले गए. तब तक उन्होंने देशभक्ति से सराबोर वीररस की कविताएं लिखनी और उन्हें मंचों पर सुनाना शुरू कर दिया था. साल 1947 में एक कवि सम्मेलन में राज कपूर की नजर इनपर पड़ी. वह शैलेंद्र के कविता पाठ से यों प्रभावित हुए कि  फ़िल्म 'आग' के लिए गीत लिखने के लिए कहा, किंतु शैलेंद्र को फ़िल्मी लोग पसंद नहीं थे, इसलिए उनकी बात अनसुनी कर दी.

 देश की आजादी के अगले ही साल 1948 में उनकी शादी हो गई. नौकरी पहले ही जा चुकी थी, इसलिए जब घर चलाना मुश्किल हो गया तो वह राज कपूर से मिलने गए, जो उन दिनों 'बरसात' फ़िल्म की तैयारी में जुटे थे. राजकपूर से मिलने  शैलेंद्र जब घर से निकले तो घनघोर बारिश हो रही थी. इसी माहौल में शैलेंद्र ने बरसात में तुम से मिले हम ओ सनमगीत की रचना कर डाली, और जब वह राजकपूर से मिले तो अपने दस गीत सौंपने से पहले उन्हें यही गीत सुनाया. कहते हैं राजकपूर इतने खुश हुए कि उन दस गीतों के लिए तुरंत पचास हज़ार रुपए दे दिए, जिसके बाद शैलेंद्र ने बतौर गीतकार कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. कहते हैं शैलेंद्र को फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' इतनी पसंद आई कि उन्होंने निर्माता बनने की ठान ली और इसके कथानक पर राजकपूर व वहीदा रहमान को लेकर 'तीसरी कसम' फिल्म बनाई. फिल्म निर्माण के लिए उन्होंने अपनी सारी दौलत तो लगाई ही मित्रों से भारी रकम उधार भी ले ली. पर जब फ़िल्म रिलीज हुई तो शुरुआती दौर में डूब गई. कर्ज़ से लदे शैलेंद्र बीमार हो गए. तब वह राज कपूर के लिए जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में, नजरों को हम बिछायेंगेगीत की रचना कर रहे थे. कहते हैं बीमारी की इसी अवस्था में 14 दिसंबर, 1966 को जब वह राजकपूर से मिलने आरके स्टूडियो जा रहे थे, रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया. यह एक तथ्य है कि उनकी मौत के बाद न केवल 'तीसरी कसम' हिट हुई बल्कि उसे कई पुरस्कार भी मिले. एक प्रतिभाशाली देशभक्त मंचीय कवि से फिल्मी गीतकार बने शैलेंद्र ने 'ये मेरा दीवानापन है…', 'सब कुछ सीखा हमने…' और 'मै गाऊं तुम सो जाओ…' के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी जीता था.

 शैलेंद्र जैसे लोग अपने निधन के बाद भी कहीं जाते नहीं…अपने बोल और गीतों में यहीं कहीं रहते हैं हमारे आसपास.जागरण हिंदी की ओर से गीतकार शैलेंद्र को नमन!