अचानक से जब पता चला कि पद्मश्री डॉ. उषा किरण खान नहीं रहीं, तो मन पटल पर पिछले कई दशकों का साहित्यिक—सांस्कृतिक अतीत सामने आ खड़ा हुआ। पटना शहर में होने वाले ऐसे सैंकड़ों साहित्यिक आयोजनों की कुर्सियां आंखों के सामने आ गईं, जिनकी शोभा उषा जी बढ़ाया करती थीं। फिर एक टीस उत्पन्न हुई कि अब से किसी भी कार्यक्रम में उषा दीदी नहीं होंगी। हम सबके लिए वे उषा दीदी थीं। वात्सल्य बरसाने वाले भाव से भरी उनकी उपस्थिति एक साथ तीन पीढ़ियों को उर्जित करती थी। लेकिन, एक साहस है कि उनका रचना संसार सदा हमारे साथ रहेगा और आने वाली कई पीढ़ियों को आलोकित करता रहेगा।

इतिहास उनका प्रिय विषय था। तभी तो दसवीं सदी के कालखंड पर पूरे आत्मविश्वास के साथ ‘भामती’ जैसा प्रमाणिक व लोकप्रिय उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। हिंदी के साथ—साथ मैथिली में भी समान अधिकार के साथ उनकी कलम चलती थी। सामाजिक परिवेश से लेकर पारिवारिक संबंध और इतिहास से लेकर राजनीति तक, अपनी रचनाओं में हर बिंदु को उन्होंने छुआ। उपन्यास व काहनी के अलावा नाटक लेखन पर उनका काम संग्रहनीय है। कवि विद्यापति पर आधारित ‘कहां गए मोरे उगना’ शीर्षक से लिखे उनके नाटक में जहां इतिहास बोध है, वहीं ‘फागुन’ और ‘मुसकौल बला’ जैसी मैथिली नाटकों में सांस्कृतिक आयाम की झलक है। परतंत्र भारत में मिथिला के गढ़ दरभंगा जिले के लहेरियासराय में जन्म लेने के कारण मैथिली संस्कृति उन्हें विरासत में मिली, जिसके मर्म को अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने भावी पीढ़ी को हस्तानांतरित किया है।

बाल साहित्य पर उनका काम अनोखा है। बिरड़ो आबि गेल, घंटी से बान्हल राजू, डैडी बदल गए हैं जैसे बाल नाटक के अलावा ‘लड़ाकू जनमेजय’ जैसा बाल उपन्यास वे हमें देकर गई हैं, जिन्हें समेटकर रखना हमारी व हमारी अगली पीढ़ी की जिम्मेदारी है। इतना वैविध्य विरले रचनाकारों में होता है। शायद यही वजह है कि महादेवी वर्मा के बाद उत्तर प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ साहित्य सम्मान ‘भारत—भारती’ से पुरस्कृत होने वाली वे सिर्फ दूसरी महिला साहित्यकार हैं। 2015 में उन्हें पद्मश्री से देश ने सम्मानित किया। जिस जमाने में बिहार में उन्होंने लिखना शुरू किया था, उस समय उनका कार्य किसी क्रांति से कम नहीं था। बाबा नागार्जुन व रामवृक्ष बेनीपुरी से प्रेरणा पाने वाली उषा जी ने मैथिली व हिंदी साहित्य में एक अलग लकीर खींच दी है।

बच्चों के बीच वे खासी लो​कप्रिय थीं। बढ़ती उम्र व व्यस्तताओं के बावजूद बच्चों के कार्यक्रम के लिए वे समय निकालतीं। किलकारी में कार्यक्रम हो या कहानीघर में, हमारी उषा दीदी बच्चों को कहानी सुनाने जरूर जाती थीं। हर उम्र के बच्चे थोड़े ही देर में उनसे हिल—मिल जाते। जैसे उषा दीदी उन बच्चों की अपनी दादी या नानी हों। पटना में साहित्यिक गोष्ठी हो अथवा पुस्तक मेला या ​कोई फिल्मोत्सव, उषा की स्नेहसिक्त उपस्थिति भर से कार्यक्रम की वैचारिक सज्जा हो जाती थी। उभरते रचनाकारों को स्नेह देतीं, उत्साह से भर देतीं और आशीर्वाद देते समय बालसुलभ मुस्कान का उपहार थमा देतीं। अब उषा की किरण सांझ को प्राप्त हो चुकी है। उनके शब्दों के माध्यम से भावी पीढ़ियां प्रकाश पाती रहेंगी।

(लेखक : प्रशांत रंजन)