लखनऊ: ऊं स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा:। अर्थात महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो। यह प्रथम पंक्ति है उस स्वस्तिवाचन की, जो सनातन धर्म में सदियों से हर शुभ कार्य के पहले वाचित है, लेकिन इंद्रदेव ने संवादी के शुभारंभ पर स्वस्तिवाचन से पहले ही आशीर्वाद दे दिया। बाहर बूंदों की रिमझिम से बचने को व्याकुल श्रोता बीएनए के हॉल में हो रही ज्ञानवर्षा से भीगने को आतुर दिखे। इस उत्सव का स्वस्ति वाचन भी उस सरस्वती के मानस पुत्र द्वारा हुआ, जो वेदों से दीक्षित और हृदय से सनातन परंपरा का पोषक है, यानी हृदय नारायण दीक्षित। मौका था वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक 'ज्ञान का ज्ञान' के विमोचन और उस पर चर्चा करने का। पुस्तक के बहाने वार्ता प्रारंभ होते ही एक राजनेता, पत्रकार, लेखक और स्तंभकार मंच पर प्रकांड धर्माचार्य के रूप में अवतरित था।
हमारी प्रवृत्ति ही सबसे अलग
पुस्तक का संक्षिप्त परिचय बस इतने शब्दों से जान लीजिए कि किसी गीत को इतनी लयबद्ध तरीके से गुनगुनाते हुए आभास करना कि वो आपको गुनगुना रहा है। किताब लिखने का प्रयोजन मात्र इतना कि पांच हजार साल पहले रचे गए उपनिषदोंं का संदेश आसान भाषा में लोगों तक पहुंच सके। ललित निबंध शैली में लिखी पुस्तक बताती है कि हमारी जिज्ञासा और खोज की प्रवृत्ति ही हमें सबसे अलग करती है। ऋग्वेद के ऋषि से लेकर स्व. स्टीफन हॉकिंग तक की जिज्ञासा इस सृष्टि के सृजन को लेकर थी। यह प्रकृति इतनी रहस्यमय है कि मनुष्य को हर कालखंड में ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय की अवस्था में रखती है। इसके बावजूद हमारी जिज्ञासा और खोजवादी प्रवृत्ति हमें दूसरी सभ्यताओं से अलग करती है। दूसरे लोग संतुष्ट हो चुके हैं कि उनके देवदूतों ने जो कहा वही सत्य और अंतिम है जबकि हम आज भी प्रकृति और सृष्टि के रहस्यों के प्रति जिज्ञासु हैं।
हम संवादहीन नहीं हो सकते
जिज्ञासा प्रश्न को जन्म देती है और प्रश्न से संवाद शुरू होता है। अब बताइए बिना संवाद भी कोई समाज होता है। हमारी परंपरा में ऋग्वेद का ऋषि नदी से संवाद करता है। शिव-पार्वती हर कथा में संवाद करते हैं तो काकभुशुण्डि और गरुण संवाद करते हैं। राम भी खग, मृग और मधुकरों से संवाद करते हैं। हम आज भी पूछते हैं कि हम क्या हैं? क्यों हैं? और क्या हमें ईश्वर ने बनाया है। यह सारे प्रश्न ऋग्वेद के समय में भी थे और स्टीफन हॉकिंग के सामने भी।
क्या आज वेदों की प्रासंगिकता है
दीक्षित उवाच- हर कालखंड पूर्व से तेज होता है और संशयपूर्ण है। हम जब दूसरों का अंधानुसरण करेंगे तो तनाव होगा ही। देश में इस समय मेें आधुनिकता के नाम पर समाज एक तरह से पीडि़त है। जो लोग अपने उद्ग़म को भूलकर पाश्चात्य प्रवाहगामी हैं, उन्हेें समझना चाहिए कि आयातित और उधार की आधुनिकता हमारी पंरपरा की कोख से जन्मी आधुनिकता के आगे बौनी है। लोगों को समझना चाहिए कि ब्रिटेन, इंग्लैंड और अमेरिका की सभ्यता, संस्कृति हमसे भिन्न है तो उनकी आधुनिकता हमें आत्मसंतुष्टि कैसे देगी। जब संतुष्टि नहीं, जिज्ञासा नहीं, प्रश्न नहीं तो संवाद कैसे होगा। संवादहीनता से बचने के लिए आज वेद और उपनिषद की प्रासंगिकता है और हमेशा रहेगी।
हम बिलीवर नहीं, सीकर हैं
किताब बताती है कि ऋग्वेद में ईश्वर को भी सत्ताधीश नहीं कहा गया। इसके बाद उद्घोषणा से पैदा हुए धर्मों ने ईश्वर को दंड देने वाला और डराने वाला बताया गया। अन्य धर्म ईश्वर के प्रति विश्वासी (बिलीवर) हैं जबकि हम खोजी (सीकर) हैं। हमारा धर्म ही खोज के प्रति समर्पित है। विज्ञान क्या ईश्वर को सिद्ध कर सकता है? इस सवाल पर दीक्षित जी कहते हैं कि ईश्वर तो नहीं लेकिन ईश्वर की सृष्टि जरूर विज्ञान के लिए खोज का विषय है। यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि पार्टिकल ऑफ गॉड को मॉसलेस कहा गया उसे ऋग्वेद में पहले ही अकायम कहा गया है। डार्विन से लेकर पाइथागोरस तक के लिए यह सृष्टि सृजन खोज का विषय रहा है। बहुत ही सरल शब्दों में कहा जाए तो विज्ञान और आस्था को टकराव के बजाय सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। अपनी तमाम किताबों का नाम मधु से शुरू होने के सवाल पर दीक्षित जी कहते हैं कि माधुर्य हर जगह होना चाहिए। मधु का अर्थ है मिठास यानी सुखानुभूति। ऋग्वेद में कहा गया है कि मधु वाता ऋ तायते मधुं क्षरन्ति सिन्धव: अर्थात वायु और समुद्र भी मधु समान हों।
जब प्रकाशक बने कवि
यह हृदय नारायण के लेखन का प्रभाव ही था कि पुस्तक पर चर्चा करने वाले प्रकाशक, अरुण माहेश्वरी रात भर पुस्तक पढऩे के बाद एक कविता लिख कर सुनाते हैं। उस कविता को भी दीक्षित जी ऋग्वेद की एक ऋचा से जोड़ देते हैं। प्रकाशक अचंभित थे, दर्शक अभिभूत और हॉल करतलध्वनि से गुंजायमान।
हृदय नारायण जैसा व्यक्तित्व सामने हो तो लेखनी वशीभूत रहती है और उपस्थित धर्माचार्य भी पुनर्पठन पर विचार करते हैं। यह अतिश्योक्ति नहीं अनुभूत है। यह एक शाश्वत सत्य है कि हमारा देह वर्तमान में रहता है, मन भूतकाल में भटकता है और बुद्धि भविष्यकाल में विचरण करती है। यह हमारा ज्ञान ही है जो इन सबके बीच सामंजस्य स्थापित करता है और यह ज्ञान हमें पुस्तकें पढ़कर ही प्राप्त होता है। इसलिए शब्दों से सिर्फ 'ज्ञान ही ज्ञानÓ मिलता है।

अम्बिका वाजपेयी