इस्मत चुगताई थीं तो उर्दू की लेकिन उनकी शायद ही कोई ऐसी रचना हो जो हिंदी पाठकों के समक्ष अनूदित होकर न आई हो. 15 अगस्त 1915 को 'इस्मत आपा' के नाम से विख्यात इस्मत चुगताई का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था. वह शुरू से ही बिंदास खयाल की थीं, जो पूरे जीवन उनके लेखन में झलकता रहा. महिलाओं की आजादी और सशक्तिकरण को लेकर लिखी गई उनकी कहानियों के खुलेपन को छू पाना आज के दौर में भी एक कठिन बात है. अपनी कहानी 'लिहाफ़' के लिए लाहौर हाईकोर्ट में उन्हें मुक़दमा भी झेलना पड़ा.

उनके बड़े भाई मिर्जा अजीम बेग चुगताई उर्दू के बड़े लेखक थे, जिस वजह से उन्हें अफसाने पड़ने का मौका मिला. उन्होंने चेखव, 'हेनरी से लेकर तोलस्तॉय, शेक्सपीयर, इब्सन, बर्नाड शॉ और प्रेमचंद तक सभी लेखकों को पढ़ डाला. उनका पश्चिम में लिखे गए अफसानों से गहरा जुड़ाव रहा. इस्मत आपा ने 1938 में लखनऊ के इसाबेला थोबर्न कॉलेज से बी.ए. किया. 23 साल की उम्र इस्मत में उन्हें लगा कि वह लिखने के लिए तैयार हैं. उनकी 'फसादी' कहानी उर्दू की प्रतिष्ठित पत्रिका 'साक़ी' में छपी, तो लोगों को लगा कि मिर्जा अजीम ने अपना नाम बदल कर इसे लिखा है. पर वह इस्मत की ही कहानी थी. उनका पहला उपन्यास 'ज़िद्दी' था. इस्मत चुगताई ने अपने लेखन में ठेठ मुहावरेदार गंगा जमुनी भाषा का इस्तेमाल किया है, जिसे हिंदी उर्दू की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता. उनका भाषा प्रवाह अद्भुत है और इसने उनकी रचनाओं को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने स्त्रियों को, उनकी इच्छाओं को अपनी जुबान के साथ अदब में पेश किया. उनकी रचनाओं में सबसे आकर्षित करने वाली बात उनकी निर्भीक शैली है. 

इस्मत चुगताई के कहानी संग्रहों में 'चोटें', 'छुईमुई', 'एक बात', 'कलियां', 'एक रात', 'दो हाथ', 'दोज़खी', 'शैतान'; उपन्यास में 'टेढी लकीर', 'जिद्दी', 'कतरा ए खून', 'दिल की दुनिया', 'मासूमा', 'बहरूप नगर', 'सैदाई', 'जंगली कबूतर, 'अजीब आदमी', 'बांदी' चर्चित हैं. उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा लिखी और फिल्म 'जुगनू' में अभिनय भी किया. उनकी पहली फिल्म 'छेड़-छाड़' 1943 में आई थी. उनकी आख़िरी फ़िल्म 'गर्म हवा' थी, जो 1973 में बनी थी, और जिसने कई पुरस्कार भी जीते. इस्मत आपा को गालिब अवार्ड, साहित्य अकादमी पुरस्कार, इक़बाल सम्मान, मखदूम अवार्ड और नेहरू अवार्ड से नवाजा जा चुका है. भारतीय साहित्य की इस अजीम लेखिका का निधन 24 अक्टूबर 1991 को हुआ, और उनकी वसीयत के अनुसार उन्हें दफनाया न जाकर मुंबई की चंदनबाड़ी में अग्नि को समर्पित कर दिया गया.