श्रीगंगानगरः राजस्थान में राष्ट्रीय पुस्तक सप्ताह के तहत दो दिवसीय आयोजन के तहत 'इंटरनेट के युग में पुस्तक का महत्व' विषय पर संगोष्ठी आयोजित किया गया, जिसमें वक्ताओं ने यह माना कि इंटरनेट से पुस्तकों को बल मिला है. यह आयोजन सृजन सेवा संस्थान और नोजगे पब्लिक स्कूल के सहयोग से राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने किया था. संगोष्ठी में कई विद्वानों, भाषाविदों और रचनाकारों ने भाग लिया. इस अवसर पर डॉ रामनारायण शर्मा ने कहा, "सृष्टि की उत्पत्ति का आधार ग्रंथ हैं. शब्द हमारे गुरु हैं. यह हमारे भारत की परंपरा हैं. यह हमारी संस्कृति हैं. नई तकनीक ने रीडिंग हैबिट की कमी विकसित की है. आजकल पाठक नहीं मिल रहे ,उन्होंने कुछ और तरीके मनोरंजन के ईजाद कर लिए हैं. इंटरनेट पुस्तक का विकल्प नहीं हो सकता. इसके माध्यम से कुछ और जानकारियों का इजाफा हुआ है. जरूरी साधन आ गए, जिसके माध्यम से हमारी जरूरतें सुविधाजनक हो गईं. इसका श्रेय तकनीक को जाता है, लेकिन बच्चों की कल्पनाशक्ति को विस्तार आज भी पुस्तकें ही देती हैं. यह सुविधा और विकल्प इंटरनेट नहीं दे सकता, तभी तो कहा गया है कि पुस्तकों का महत्त्व सदा से रहा है. 

डॉ नवज्योत भनोट का कहना था कि, "पुस्तकें हमारे जीवन में श्रेष्ठ समय का निर्माण करती हैं. हम यह भी जानते हैं कि इंटरनेट के युग में ऐसी सूचनाएं भी मिल रही हैं, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं. इंटरनेट में एक ऐसा आकर्षण है जिसके पीछे नई पीढ़ी ने अपना समय लगा दिया, वह उसके नशे से उबरना नहीं चाहती. मैं तो कहूंगी कि शब्द हमारे सामने ईश्वर के समक्ष ही अपनी भूमिका निभाने में समर्थ है. आज नई पीढ़ी को घबराने की आवश्यकता नहीं है, संभल कर चलने की कवायद है. इसके प्रति हमें यह देखना होगा कि हमारा लक्ष्य कितना समर्पित भाव लिए हुए है. ऐसा भी नहीं है कि इस तंत्र से छापेखाने को कोई खतरा नहीं है. 

डॉ कृष्ण कुमार आशु ने कहा कि यदि आपकी मित्र पुस्तक हैं तो आपको किसी और की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. पुस्तकों को अपने जीवन में जितने भी महापुरुष मिले हैं, उनकी जीवनियां पढ़कर मनुष्य अपना विकास कर सकता है. डॉ कीर्ति शर्मा नोहर से ने कहा कि आज इंटरनेट हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है. आज यदि इस टेक्निक का हम ज्यादा उपयोग करेंगे तो हमें लत लग जायेगी. इस आदत से हमें बचने की आवश्यकता है. 

डॉ भूपेंद्र सिंह का कहना था कि भाषा का विकास देखें तो उसके पीछे पत्थर, तांबे के पत्र उदारहण हैं. आज ई-पुस्तक हमारे सामने है.आज इंटरनेट के युग में धीरे-धीरे पुस्तक खत्म हो जाएंगी, यह डर लोगों को सता रहा था, लेकिन यह बात मिथ्या ही साबित हुई. ई-पुस्तक की खासियत है कि आज सैंकड़ों किताबें ईँपुस्तक में समा गई हैं. यह परंपरागत पुस्तकों से सस्ती भी है. इसका फैलाव ज्यादा किया जाना उचित है. आज देखना यह है कि आज तीस प्रतिशत लोग नेट के माध्यम से इस तकनीक का लाभ उठा रहे हैं. शिकागो में एक रिसर्च हुई कि पुस्तकों की तुलना में ई-बुक्स पढ़ना ज्यादा तर्कसंगत है. यह माध्यम ज्यादा सुविधाजनक भी है, यह आसानी से कैरी किया जा सकता है और स्थान भी कम घेरती है. दूसरी बात यह देखिए किताबों को तैयार करने के लिए कितने पेड़ों को काटना पड़ेगा, लेकिन नई तकनीक सेफ है. ई-बुक्स की कमी है इसका उपयोग करने से एकाग्रता में कमी आती है. आज भी पुस्तकों का अपना महत्व है, जिसकी खुशबू आज भी आनंदित करती है, यह महक ई-बुक्स में कहां सम्भव!


संगोष्ठी के विशिष्ठ अतिथि सत्यदेव सवितेन्द्र का कहना था कि पुस्तकें आज भी प्रासंगिक हैं. ज्ञान को आत्मसात करने के लिए कोई भी माध्यम आज पुस्तक के सामने बेमानी है. पुस्तक को मैं अपनी सुविधानुसार पढ़ लेता हूँ, यह माध्यम नई तकनीक में सम्भव नहीं. पुस्तक अपने आप में महत्वपूर्ण है, इस आयोजन के लिए मैं राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत को अपनी शुभकामनाएं देना चाहता हूँ. मैंने वह भी जमाना देखा है जब हम हाथ से लिखी पत्रिकाओं को एक दूसरे मित्रों को पढ़ने के लिए दिया करते थे. मुख्य अतिथि डॉ प्रेम जनमेजय का कहना था कि न्यास वह काम कर रहा है वह जो एक पौधा सूखता जा रहा है, वह उसको पानी दे रहा है, वह प्यासे व्यक्तियों के पास जा रहा है, उनको किताबें उपलब्ध करवा रहा है. अपनी सचल पुस्तक प्रदर्शिनी के माध्यम से वह उन जगहों तक पहुंच रहा है, इसका सारा श्रेय न्यास के अध्यक्ष डॉ बल्देव भाई शर्मा को जाता है. हमारा दायित्व है अपनी पीढ़ी में यह भाव जागृत करना कि पुस्तकों का उनके जीवन में कितना असर पड़ सकता है, इस बात को समझने की आवश्यकता है. इस मौके पर डॉ प्रेम जनमेजय ने कुछ नैतिक कथाओं का पाठ भी किया. उन्होंने यह भी कहा कि संतुलित सोच के साथ पुस्तकें भी उतनी जरूरी है जितना मां-बाप का आशीर्वाद. पुस्तकें हमारे जीवन में ज्ञान देने के लिए उपलब्ध हैं, उसका उपयोग अवश्य करना चाहिए. 

संगोष्ठी के अध्यक्षता करते हुए साहित्य अकादेमी से समादृत डॉ मोहन आलोक ने कहा कि मैं नहीं समझता कि पुस्तक कभी आउट ऑफ डेड हो जाएगी. हजारों वर्ष तक जो चीजें हम इस्तेमाल करते आये हैं वह हमारे खून में रच बस जाती है, यह बात हम सब जानते हैं. सीधी सी बात समझ लीजिए किताबों का अपना वजूद है उसकी जगह कोई नहीं ले सकता. पुस्तकें हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं. कार्यक्रम में आरंभ में न्यास की गतिविधियों की जानकारी को न्यास के सहायक संपादक डॉ ललित किशोर मंडोरा ने साझा किया. इस अवसर पर सृजन के गलियारे में काव्य पाठ भी हुआ, जिसमें ममता आहूजा, सत्यपाल मित्तल, मिथिलेश सोनी, सुरेंद्र सुंदरम, ऋतु सिंह, डॉ आशाराम भार्गव, समिन्द्र कौर, डॉ अरुण शहरयार, कीर्ति शर्मा, मीनाक्षी आहूजा, डॉ कृष्ण कुमार आशु, डॉ संदेश त्यागी, डॉ मंगत बादल, सत्यदेव सवितेन्द्र, प्रेम जनमेजय, मोहन आलोक ने अपनी रचनाएं सुनाईं. इस सत्र के अध्यक्ष डॉ बुलाकी शर्मा ने कहा कि यह एक अनूठा कार्यक्रम है, जिसमें 18 कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया. श्रीगंगानगर की ये कविताएं वास्तव में कविता का उद्धघोष हैं, जिसका स्वागत देश के हर प्रांत में किया जाना चाहिए. यहां की हर कविता में प्रेम का भाव दिखाई दिया, वास्तव में प्रेम का होना आज की नितांत आवश्यकता है.