नई दिल्लीः देश की विविधता, संस्कृति, अपनी जड़ों, परंपराओं और प्रकृति से सीधे रूबरू होने के लिए साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों, विचारकों और रचनाकारों के एक समूह ने 'आपसदारियां' नामक एक अनौपचारिक समूह बना रखा है, जिसके इसके सदस्य तहत मौसम के हिसाब से देश के अलग-अलग हिस्सों की संस्कृति, रहनसहन, खानपान के अध्ययन के लिए किसी एक इलाके को चुन वहां के किसी छोटे- बड़े नगर या गांव में प्रवास करते हैं, घूमते हैं. इस समूह से जुड़े रचनाकार सबसे पहले घाटशिला में मिले. उसके बाद बेलापानी और बोनगांव से होते हुए इस बार उन्होंने डेरा बसाया सह्याद्रि पर्तत शृंखला की गोद में बसे नगर दापोली में. एक तरफ पहाड़ तो दूसरी तरफ समुद्र से घिरा यह बेहद रमणीक स्थल है.
आपसदारियां से जुड़े कलाकारों, रचनाकारों ने दापोली में एशिया के सबसे बड़े विश्वविद्यालय और स्थानीय काजू की फैक्टरी का दौरा करने के साथ ही गांव साखेरवाड़ी की जानकारी ली. उन्होंने स्थानीय मछुआरों से मछली पकड़ने के हुनर और उनके रहन-सहन के बारे में भी जाना. साहित्यकारों लेखकों के इस समूह में कवर्धा के नीरज मनजीत, बिलासपुर के सतीश जायसवाल, तनवीर हसन, लखनऊ से अंबरीष कुमार, नई दिल्ली से ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, मृदुला शुक्ल, देहरादून से गीता गौरेला, सिद्धेश्वर सिंह, मुंबई से माधुरी् छेड़ा, रवींद्र कात्यायन, दार्जिलिंग से सृजना सुब्बा और रायपुर से इंदु साहू शामिल हुए. पिछला कार्यक्रम भारत-बांग्लादेश सीमा पर बीती फरवरी यानी बसंत के मौसम में आयोजित हुआ था, तो ठंड के मौसम में सभी जन चिल्फी घाटी में मिले थे.
'आपसदारियां' के बारे में दिल्ली के साहित्यकार ब्रजेन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि यह एक अलग तरह का अनुभव है. मौसम के बदलने के साथ अलग-लग इलाकों के खानपान, रहन-सहन और संस्कृति का अनुभव सहेजना काफी मजेदार है. हम लोग इसका संस्मरण भी सहेज रहे हैं, जो प्रकाशित होगा. 'आपसदारियां' के आयोजक लेखक सतीश जायसवाल कहते हैं, कुछ समय पहले कुछ रचनाकार मित्रों ने घाटशिला के आदिवासी अंचल में प्रवास किया था. वहां हमने बांग्ला उपन्यासकार बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय का घर देखा. उनकी सुवर्णरेखा नदी देखी…. तब मन में एक बात आई कि अपनी जड़ों और वैभवशाली परंपराओं के साथ जमीनी तौर पर जुड़ने-जोड़ने में रचनाकारों के ऐसे छोटे-छोटे सामूहिक प्रवास हमें बड़े रचनात्मक अनुभवों से समृद्ध कर सकते हैं. घाटशिला प्रवास एक पहल थी. तब तक हमारे सामने कोई व्यवस्थित रूपरेखा भी नहीं थी. बस, किसी एक जगह आपस में मिलने-जुलने का विचार ही था. हमने सोचा यह मिलना-जुलना किन्हीं आपसदारियों से जुड़ना भी तो है, तो क्यों न इसका कोई नाम रखा जाए, और वहीं घाटशिला में इस समूह का नाम रख दिया गया- 'आपसदारियां'. तब से हम मिल-जुल रहे और इन पर लिख भी रहे.