समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है| समाज भी और साहित्य भी| आज जब महज 140 शब्दों में ट्वीटर के माध्यम से अपनी बात वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुंचा सकते हैं, महज एक मिनट का वीडियो देश-विदेश में सनसनी फैला सकती है, तो इस प्रवृत्ति से साहित्य,लेखक और पाठक भी अछूते नहीं रह पाए हैं | आज तो कहानियां छोटी हो रही हैं और उपन्यासों के पन्ने कम हो रहे हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि पाठक में वो धैर्य नहीं है कि वो भारी भरकम किताब पढ़ सके। हिंदी के वरिष्ठ लेखक असग़र वजाहत का इस विषय में मानना है, “बड़े उपन्यास, जिन्हें महाकाव्यात्मक भी कहा जाता है, वो लिखने के लिए लेखक के पास न सिर्फ ज्यादा जानकारियां होनी चाहियें, अपितु उसमें एक जीवन दृष्टि भी होनी चाहिए | उपन्यास का कंटेंट अगर महत्वपूर्ण हो तो उसका आकार मायने नहीं रखता है|”  उधर हिंदी के ही एक और उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल, जिनका उपन्यास ‘बाबल तेरा देस में’ वर्ष 2004 में प्रकाशित हुआ था, और उसमें 485 पृष्ठ हैं, का मानना है कि  “अगर कम पृष्ठ संख्या लोकप्रियता का मापदंड होती तो अंग्रेजी के उपन्यासकार मोटे-मोटे उपन्यास लिखकर अपने पाठक कैसे ढूंढ लेते| गत वर्षों के कुछ चर्चित उपन्यासों की बात करें तो उनमें ‘काला पहाड़’, ‘आवा’, ‘चाक’ इन्हीं हथियारों से आदि का नाम लिया जा सकता है, और सभी पृष्ठ संख्या की दृष्टि से बड़े हैं|” मोरवाल जी लेखन को ‘फुल मैराथन’ मानते हैं, और जो इसकी सीमा तक पहुँचने का माद्दा रखेगा वही लेखन की रेस में दौड़ेगा|

इस मुद्दे को लोकप्रिय किताबों के लेखक कुछ दूसरी नज़र से देखते हैं | ‘नॉन रेजिडेंट बिहारी’ और ‘वैलेंटाइन बाबा’ उपन्यास के लेखक शशिकांत मिश्र ने कहा- “दुबले पतले उपन्यासों का ये जो नया दौर शुरू हुआ है, इसे क्रिकेट के खेल में आये बदलाव से भली-भांति समझा जा सकता है। टेस्ट क्रिकेट, वन डे और अब टी-20 का दौर। समय कम, मजा ज्यादा और मैदान में पहले से ज्यादा प्रतिस्पर्धा और क्रांतिकारी प्रयोग। उपन्यास के क्षेत्र में भी कमोबेश यही हो रहा है। पाठक के पास समय की कमी है, प्रकाशक कम बजट में ज्यादा मुनाफा की चाह रख रहे हैं ।“ शशिकांत जी कुछ व्यावहारिक तथ्य से अपनी बात की पुष्टि करते हैं| उपन्यासों के इस बदलते स्वरुप के विषय में राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक, अशोक महेश्वरी बताते हैं, ‘आज से पहले भी उपन्यासों के दोनों रूप उपलब्ध थे| अधिक पृष्ठों के भी और कम पृष्ठों के भी| यकीनन अधिक पृष्ठों का उपन्यास पढ़ने के लिए अधिक धैर्य और समय की ज़रुरत होती है| और आज के भागदौड़ भरे समय में पाठक ऐसी किताब अपने हाथ में चाहते हैं, जिसे वो जहाँ मर्जी ले जाएँ और पढ़ना शुरू कर दें| पाठक बेशक आज भी दोनों तरह की किताबों के लिए मौजूद है|’

यह बात सही है कि इन दिनों ज्यादातर कम पृष्ठों वाले उपन्यासों की धूम मची हुई है। नए लेखक डेढ़ दो सौ पन्नों में अपनी बात कह जा रहे हैं लेकिन सवाल यही उठता है कि इन उपन्यासों में जीवन दृष्टि से लेकर कथा विन्यास कितनी मजबूती से बुना जा रहा है। आप अपनी राय साझा करें ।