यह एक विचित्र संयोग था कि कल जब राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के हाथों खेल जगत की नामचीन हस्तियां सम्मानित हो रही थीं, तब अपनी दमदार आवाज से हर भारतीय के घर में मुकाम बनाने वाले जसदेव सिंह की आवाज खामोश हो चुकी थी. जसदेव सिंह यानी भारतीय रेडियो पर अनवरत उद्घोषणा की वह आवाज़, जिसने बिना खेल के मैदान में गए ही अपने श्रोताओं के लिए खेलों के हर मुकाबले को जीवंत बना दिया. फिर खेल ही क्यों वह भारतीय लोकतंत्र के दोनों महान उत्सवों 'गणतंत्र दिवस' और 'स्वतंत्रता दिवस' की भी आवाज बन गए थे. ‘राजपथ से मैं जसदेव सिंह बोल रहा हूं’ – इस लाइन शुरू हो जसदेव सिंह की कमेंट्री झांकियों और वीआईपी मेहमानों के बखान से शुरू हो मौसम, पक्षी, बैंड, जवानों के पसीने और राजपथ पर मूंगफली बेचने वाले शख्स से लेकर फूल पत्ती तक हर चीज़ का ऐसे वर्णन करती कि सुनने वाला राजपथ की भीड़ का हिस्सा बन जाता. उन्होंने 45 से भी अधिक गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस समारोह के उत्सव को अपनी आवाज में घर-घर तक पहुंचाया.
महात्मा गांधी के निधन और उनके अंतिम संस्कार का आंखोंदेखा हाल ऑल इंडिया रेडियो पर अंग्रेजी उद्घोषक मेलविल डि मेलो की आवाज़ में सु्न जसदेव सिंह ने उद्घोषक बनने का फैसला किया था और फिर एक वक्त ऐसा भी आया कि डि मेलो के साथ जसदेव सिंह की आवाज़ कई ऐतिहासिक पलों की गवाह बनीं. इसमें 1975 का हॉकी विश्वकप और स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा की अंतरिक्ष यात्रा का विवरण शामिल है. जसदेव सिंह उसी रफ्तार से हॉकी मैच की कमेंट्री सुनाते थे, जिस रफ्तार से गेंद मैदान में यहां से वहां होती थी. शायद इसीलिए 1975 में हॉकी विश्व कप के बाद जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जसदेव सिंह से मिलवाया गया तो उनकी प्रतिक्रिया थी, ‘अरे आपने तो दिल की धड़कने ही बढ़ा दी थीं. हमने तो संसद को रुकवा दिया, आप इतना फास्ट कैसे बोल लेते हैं.’ कहते हैं कि जसदेव सिंह की क्रिकेट और हॉकी की कमेंट्री इतनी दिलचस्प होती थी कि कई बार लोग टीवी की आवाज़ बंद करके रेडियो पर उनकी आवाज़ के साथ मैच देखना पसंद करते थे.
साल 1950 में आल इंडिया रेडियो के आडिशन में असफल रहने वाले सिंह ने 1955 में रेडियो जयपुर में 200 रुपए वेतन पर 'आवाज का सफर' शुरू किया और 1961 में पहली दफा लाल किले से स्वतंत्रता दिवस की कमेंट्री की और 1963 में राजपथ से गणतंत्र दिवस की. नौ आलिंपिक खेलों, छह एशियाड और आठ हॉकी विश्वकप की कमेंट्री करने वाले जसवंत सिंह हिंदी और हिंदुस्तानी के जबर्दस्त पक्षधर थे. एक बार उन्होंने कहा भी था कि आखिर अंग्रेजी की बैसाखियों के सहारे कब तक चलेंगे, लेकिन तकनीकी शब्दों के हिंदी अनुवाद को सही नहीं मानते थे. उनका मानना था कि शब्दों के प्रयोग का भी काफी महत्त्व है. अपनी कमेंट्री में वह उर्दू के शेर और हिंदी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं की कहावतों का प्रयोग करने में माहिर थे. उन्हें ओलिंपिक खेलों के सबसे बड़े पुरस्कार ओलिंपिक ऑर्डर के साथ ही पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था. आश्चर्यजनक बात यह है कि जसदेव सिंह ने कभी कोई खेल नहीं खेला, क्रिकेट तो बिल्कुल भी नहीं. किस्सों के खजाना लेकर घूमने वाले जसदेव सिंह के निधन से उनके प्रशंसक कष्ट में हैं. सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों की बाढ़ सी आ गई है. जागरण हिंदी की ओर से भी आवाज की दुनिया की इस दमदार शख्सियत को श्रद्धांजलि!