नई दिल्लीः हिंदी आलोचना के क्षेत्र में नामवर सिंह अब एक विशिष्ट शख्सियत की देहरी लाँघकर एक 'लिविंग लीजेंड' सरीखे हो चुके हैं. तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रशंसा से लेकर भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर सिंह ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला है कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर पुस्तक के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं. अब 'द्वाभा' के नाम से एक पुस्तक उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है. इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं. इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं. इनमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान शामिल हैं.

'द्वाभामें हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया हैजिसमें मीरारहीमसंत तुकारामप्रेमचंदराहुल सांकृत्यायनत्रिलोचनहजारीप्रसाद द्विवेदीमहादेवी वर्मापरसाईश्रीलाल शुक्लगालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से परखा गया है. यह किताब नामवर सिंह के विचार-स्रोतों का पुंज है. एक जगह वह कहते है, 'संस्कृति एकवचन शब्द नहीं हैसंस्कृतियाँ होती हैं…सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैं…सांस्कृतिक बहुलता को नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं.राजकमल प्रकाशन का दावा है कि हिंदी आलोचना व साहित्य के शोधार्थी और जिज्ञासु पाठकों के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक है. 

पुस्तक : द्वाभा  
लेखक   :  नामवर सिंह   
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन 
हार्डबाउंड मूल्य : 695