नई दिल्ली: साहित्य अकादमी द्वारा अकादेमी सभाकक्ष में उर्दू के प्रतिष्ठित आलोचक अब्दुर्रहमान बिजनौरी के जीवन एवं कृतित्व पर आयोजित संगोष्ठी का उद्घाटन चर्चित उर्दू साहित्यकार डा. तक़ी आबिदी ने किया. अपने उद्घाटन भाषण में उन्होंने कहा कि बिजनौरी की आलेाचना का कोई जवाब नहीं. गुलशने दीवाने गालिब का पहला दरवाजा खोलने वाला पहला शख्स बिजनौरी ही हैं. संगोष्ठी के आरंभ में अकादेमी के सचिव डा. के. श्रीनिवासराव ने औपचारिक स्वागत करते हुए कहा कि अब्दुर्रहमान बिजनौरी आधुनिक भारतीय साहित्य की बहुत महत्त्वपूर्ण आवाज़ हैं. मात्र इकतीस साल की उम्र निधन हो जाने के कारण वे बहुत ज्यादा तो नहीं लिख पाए, लेकिन आलोचना पुस्तक 'महासिने कलामे गालिब' एक महान साहित्यकार का गुणवत्तापूर्ण विश्लेषण है. इस अवसर पर अकादमी के उर्दू भाषा परामर्श मंडल के संयोजक श्री शीन काफ़ निज़ाम ने आरंभिक वक्तव्य देते हुए बिजनौरी की आलोचना पर विभिन्न विद्वानों की तकरीरों को उद्धृत किया और कहा कि वे आलोचक होने के साथ-साथ एक शायर भी थे
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए अकादमी के पूर्व अध्यक्ष, महत्तर सदस्य तथा उर्दू के प्रख्यात आलोचक प्रो. गोपीचंद नारंग ने कहा कि बिजनौरी के एक-एक शब्द में हिंदुस्तान और उसके मजहबों की मोहब्बत से भरे हैं. उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध जुमला है कि हिंदुस्तान की दो पवित्र किताबें है, पहली-वेदे मुक़द्दस और दूसरी दीवाने ग़ालिब. ऐसी बात भारत जैसे सांस्कृतिक बहुलता वाले उदार देश में ही स्वीकार्य हो सकता है. उन्होंने कहा कि बिजनौरी इंसानियत के सच्चे पुजारी थे और उन जैसी शख्सियत कोई दूसरी नहीं हो सकती. संगोष्ठी में बीज वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए शमीम तारिक़ ने कहा कि यद्यपि बिजनौरी को याद करते हुए गा़ालिब पर लिखी उनकी पुस्तक को ही याद किया जाता है, लेकिन उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है. वास्तव में इल्मी और अदबी मसायल को उन्हें पढ़े बिना हल नहीं किया जा सकता. उन्होंने उनकी आलोचनाओं को भी उद्धृत किया तथा कहा कि वास्तव में उनका प्रसिद्ध जुमला इस बात की ताक़ीद करता है कि दीवाने ग़ालिब भारत की श्रुति और स्मृति की परंपरा में शामिल किए जाने के काबिल है.  कार्यक्रम का संचालन अकादमी के विशेष कार्याधिकारी डा. देवेंद्र कुमार देवेश ने किया और धन्यवाद ज्ञापन भी किया.