नई दिल्लीः आशीष कंधवे भारत सरकार के अधीन प्रकाशित होने वाली पत्रिका के सह संपादक हैं. सोशल मीडिया पर उनके परिचय में कवि , संपादक , विश्व यात्री , प्रकृति प्रेमी एक शाकाहारी मनुष्य. हिंदी अभिमान , भारत स्वाभिमान. वंदेमातरम लिखा है. कोरोना महामारी के दौर में साहित्यकारों को लेकर उन्होंने फेसबुक पर एक लंबी चौड़ी टिप्पणी लिखी है , जिसका कुछ अंश यों है. उन्होंने लिखा है , “ जब भी मैं साहित्यकारों के बारे में सोचता हूँ तो एक बात मेरे मन में हमेशा फांस की तरह अटक जाती है कि क्या साहित्यकार बिना अपना हित देखे , बिना अपना सिद्ध देखे , बिना अपनी विचारधारा देखें सिर्फ देश हित में बात नहीं कर सकता ? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर ढूंढते-ढूंढते मैं थक गया हूँ. पर प्रयास जारी है. संतुलित व्यवहार के नाम पर मौन रहना क्या साहित्यकारों का सबसे बड़ा गुण है ? या साहित्यकार होने के लिए यह जरूरी है कि आप अपना लाभ-हानि पलड़े पर तोल कर ही समाज के सामने मुंह खोले या लिखे. और इसका तीसरा सबसे प्रबल पक्ष यह है कि सरकार अच्छा करे या बुरा करे , निश्चित रूप से और निरंतर विरोध करते रहें , उसकी कटु आलोचना करते रहें , उसकी भर्त्सना करते रहें और अपने आप को तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकार सिद्ध करते रहें…सचमुच में भारत का प्रजातंत्र बेलगाम है , दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जिस देश के साहित्यकारों , बुद्धिजीवियों की इतनी बड़ी जमात , दल सरकार के विरुद्ध , सरकार के काम में मीन-मेख , और लगभग उनको नीचा दिखाने का काम इतनी प्रबलता से करती है चाहे देश की परिस्थिति कैसी भी हो. देश कितनी भी बड़ी मुसीबत से गुजर रहा हो…

उन्होंने आगे लिखा है, “क्या राष्ट्रहित और राष्ट्र की चुनी हुई सरकार से ये लोग ऊपर होते हैं? या फिर एक साहित्यकार भी एक आम आदमी की तरह मानसिक रूप से उतना भ्रष्ट हो चुका है कि वह यह सब सोचना ही नहीं चाहता की राष्ट्र क्या है? उसका दायित्व क्या है? उसके लिए भी पद, प्रतिष्ठा, पैसा और पुरस्कार ही सब कुछ है. आज ज्यादातर भारतीय साहित्यकारों की धुरी इन्ही चार चीजों की तरफ घूम रही है. विकृत और विपरीत परिस्थितियों में राष्ट्र के राष्ट्रीय नीतियों की आलोचना साहित्यकारों का मूल धर्म बनकर रह गया है. जिन साहित्यकारों का मूल धर्म यह नहीं है वह मौन रखकर उसका समर्थन कर देते हैं. पता है क्यों….क्योंकि पता नहीं उनके हाथ से कौन सा पुरस्कार छूट जाए या फिर कौन सी बात वह कह दे जिससे एक बड़ा समाज या सरकार उनके खिलाफ न हो जाए? या फिर पता नहीं कौन सा पद कब चला जाए. कहीं उनका नाम किसी संस्थान में उपाध्यक्ष के लिए तो नहीं विचाराधीन है या फिर कहीं वह किसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर तो नहीं बनने वाले. यहां तक कि कहीं किसी बड़ी सरकारी पत्रिका के संपादक का पद न चला जाए या फिर साहित्य अकादमी की सदस्यता. बस इसी में उलझे हुए हैं. यही सब सोचकर वह मौन ही रह कर संतुलन बनाते रहते हैं….सबसे खतरनाक यह मौन साधक, संतुलन साधने वाले बिकाऊ, दिखाऊ साहित्यकार हैं.