नई दिल्लीः देश के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में से एक अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं से आप सभी परिचित हैं. आज जब वह हमारे बीच सशरीर नहीं हैं, तब जागरण हिंदी उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी पांच चुनी हुई कविताएं यहां प्रस्तुत कर रहा.
कविता- १
कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.
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कविता-२
पहली अनुभूति
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
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कविता-३
आओ फिर से दिया जलाएं
आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
हम पड़ाव को समझें मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं।
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कविता- ४
आओ मन की गांठें खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले, घास फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आँगन में, तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर.
माँ के मुँह से रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें,
आओ मन की गांठें खोलें.
बाबा की बैठक में बिछी चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालों के मन में असमंजस, जाऊं या ना जाऊं,
माथे तिलक, आंख पर ऐनक, पोथी खुली स्वंय से बोलें,
आओ मन की गांठें खोलें.
सरस्वती की देख साधना, लक्ष्मी ने संबंध ना जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन बनने का संकल्प ना तोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी में, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें,
आओ मन की गांठें खोलें.
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कविता- ५
दूसरी अनुभूति
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर ,
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कूक रात,
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं.
गीत नया गाता हूं.
टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी.
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं.
गीत नया गाता हूं.