साह‍ित्‍य के मायने

भाव, विचार, संवेदना व दृष्टिबोध से जन्म लेता है साहित्य

– यही है ‘हिंदी हैं हम’ अभियान के तहत आयोजित ‘जागरण संवादी’ के पहले सत्र का सार
– पुरोधाओं ने समझाए ‘साहित्य के मायने’, कहा- समाज को अवसाद से बचाता है साहित्य
– हिंदी की स्थिति और हिंदी के प्रति समाज की दृष्टि को लेकर किए सत्र में श्रोताओं ने सवाल

दिनेश कुकरेती, जागरण

देहरादून: कोई भी साहित्य बेमायने नहीं होता और यह भी सच है कि साहित्य सृजन के मूल में यश प्राप्ति की कामना छिपी रहती है। बावजूद साहित्य का फलक व्यापक है। वह समाज को न केवल कुंठाओं से मुक्त करता है, बल्कि अवसाद से भी बचाता है। लेकिन, हम साहित्य किसे कहें, क्या वह किसी परिभाषा में कैद है। इसे समझना है तो व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा। हां! यह जरूर है कि हमें सूचनाओं की बाढ़ के बीच किनारों की परवाह भी करनी होगी। हमें ध्यान रखना होगा कि साहित्य भाव, विचार, संवेदना और दृष्टिबोध से जन्म लेता है। यही है ‘हिंदी हैं हम’ अभियान के तहत दून में पहली बार आयोजित ‘जागरण संवादी’ के पहले सत्र का सार।

इस सत्र में ‘साहित्य के मायने’ समझाने के लिए ‘संवादी’ के मंच को सुशोभित कर रहे थे कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी, कथाकार जितेन ठाकुर, साहित्यकार अशोक कुमार और वरिष्ठ साहित्यकार ललित मोहन रयाल। संचालन करते हुए चर्चा की शुरुआत शिक्षाविद डा. सुशील उपाध्याय ने इस सवाल से कि साहित्य के मायने क्या हैं, तो साहित्यकार अशोक कुमार का सीधा सा जवाब था, इतिहास, संस्कृति, मूल्य और मूल्यांकन करने की सोच ही साहित्य है। साहित्य अपने समय का प्रतिबिंब है, लेकिन इसके लिए समय और समाज के साथ चलना होगा। वहीं, कथाकार जितेन ठाकुर इसी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि सरोकारभरा साहित्य प्रश्न खड़े करता है। साथ ही सभ्य समाज की नब्ज पर अंगुली रखने की हिम्मत भी पैदा करता है। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं, समाज में साहित्य की अहमियत हमेशा और हर कालखंड में रही है, फिर वह चिट्ठी-पत्री का दौर रहा हो या वर्तमान में इंटरनेट का। यह जरूर है कि साहित्य के रूप-स्वरूप में समय के साथ बदलाव होता रहा है और आगे भी होता रहेगा, लेकिन इसके पाठक हमेशा मौजूद रहे हैं और आगे भी रहेंगे। वह इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं हैं कि हिंदी की पुस्तकें बिक नहीं रहीं। बस यह ध्यान रखना जरूरी है कि, ‘कौन-सी बात, कब, कहां, कैसे कही जाती है, ये सलीका आ जाए तो हर बात सुनी जाती है’।

साहित्यकार ललित मोहन रयाल की राय इससे थोड़ा इतर है। वह कहते हैं, साहित्य समकाल का प्रतिबिंब है। उस पर हमेशा समकाल का दबाव रहता है। समकालीनता बदलती है तो साहित्य भी बदलता है। दरअसल, बीते कुछ वर्षों में सूचनाओं की बाढ़ इतने वेग से आई कि हम किनारों की परवाह करना भूल गए और इतनी दूर बह गए कि पैर टिकाने को भी जगह नहीं बची। आज हमारे पास कई साधन आ गए हैं साहित्य को समझने के।हालांकि, यह भी सच है कि आज साहित्य का एक स्वरूप सामूहिक उत्पादन के रूप में भी उभरकर सामने आया है और सामूहिक उत्पादन में साहित्य की विशेषता खो जाती है। जबकि, कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी समकाल को साहित्य की राह में बाधक नहीं मानते। वह कहते हैं, समकाल भी काल का ही एक हिस्सा है। वृहद काल से समकाल को काटना काल के साथ अन्याय करना जैसा है। काल तो हमेशा रहता है और रहेगा। साहित्य तो हित की बात करता है। उसे केवल मनोरंजन की विधा कहना उचित नहीं है। साहित्य का सबसे बड़ा काम है, मनुष्य को ज्ञान से जोड़ना। वह दोटूक कहते हैं, हिंदी के पाठक में अक्ल ही नहीं, रुचि का भी अकाल है। इसके ठीक विपरीत बांग्ला का लेखक हिंदी के लेखक से समृद्ध है, क्योंकि बांग्ला का पाठक भी समृद्ध है। ऐसे में यह कहना समीचीन होगा कि पाठक होना लेखक होने से कहीं बेहतर है।

सत्र समापन की ओर बढ़ा श्रोताओं के बीच से पूजा खन्ना, एसएस रसाईली व डा. डीआर पुरोहित के सवालों के साथ। सवाल हिंदी की स्थिति और हिंदी के प्रति समाज की दृष्टि को लेकर थे। इसका जवाब सार रूप में यही था कि आज हिंदी के अध्यापक आधुनिक हिंदी साहित्य को पढ़ते कितना हैं। वह अपने भीतर परिवर्तन लाएं तो हिंदी साहित्य की दिशा एवं दशा, दोनों बदल सकती है।