पहाड़ की लोक संस्कृति

भूगोल से जन्म लेकर मूल्यों से परिचित कराती है लोक संस्कृति

संवाद के मुख्य बिंदु

– ‘जागरण संवादी’ के दूसरे दिन श्रोताओं को आनंदित कर गई पहाड़ की लोक संस्कृति’ पर हुई चर्चा
– लोक के पुरोधा बोलेसामाजिकता की गंगोत्रीसभ्यता का प्रवेशद्वारभावाभिव्यक्ति का आईना है लोक
– कहाहजाारों वर्षों की सभ्यता के पश्चात हम जिस आचरण का अनुकरण कर रहे हैंवही है संस्कृति
– पहाड़ की लुप्त होती धरोहर के संरक्षण-संवर्धन को हर छोटी-छोटी विधा का दस्तावेजीकरण है जरूरी

दिनेश कुकरेतीजागरण

देहरादून: संस्कृति के दो रूप हैंभौतिक और आध्यात्मिक। दोनों की ही उत्पत्ति भूगोल से होती है। यानी खेतखलिहानमकानमंदिरतीज, त्योहारकपड़ेयहां तक कि कोदा (मंडुवा) बोना भी संस्कृति है। संस्कृति का ध्येय है मनुष्य एवं मनुष्यता का कल्याण। वेदों में कहा गया है हमारे लिए सभी ओर से कल्याणकारी विचारों को आने दो और विचारों के स्रोत संस्कृति से ही फूटते हैं। मनुष्य जहां और जिस भी भूगोल यानी परिवेश में रहता हैवहां वैसी ही संस्कृति जन्म लेती है। यही लोक संस्कृति है। परिवार में माता-पिता बच्चे को जीवन जीने का सलीका सिखाते हैं और मूल्यों से परिचित कराते हैंठीक इसी तरह समाज को मूल्यों से परिचित कराती है संस्कृति एवं सभ्यता। देखा जाए तो जागरण संवादी’ के दूसरे दिन के दूसरे सत्र का सार (निचोड़) यही है।

सत्र का विषय था पहाड़ की लोक संस्कृति’ और इसे परिभाषित करने के लिए संवादी के मंच की शोभा बढ़ा रहे थे लोकगायक पद्मश्री प्रीतम भरतवाणलोक संस्कृति के अध्येता डा. डीआर पुरोहितसाहित्यकार एवं पूर्व डीजीपी अनिल रतूड़ी और लोककला के पारखी नंदलाल भारती। इन सभी के विचारों को लयबद्ध करने की जिम्मेदारी थी लोक के संरक्षण में अहम भूमिका निभा रहे अनिल भारती की। चर्चा की शुरुआत इसी प्रश्न से हुई कि लोक क्या है और इसका उत्तर देने का प्रयास किया साहित्यकार अनिल रतूड़ी ने। वह कहते हैं लोक सामाजिकता की गंगोत्री हैसभ्यता का प्रवेशद्वार है और भावाभिव्यक्ति का आईना है। लेकिनसंस्कृति का सबसे वृहद रूप सनातन हैक्योंकि वह गंगा-यमुना की तरह अविरल है। इन दोनों नदियों का उद्गम है उत्तराखंड हिमालय। हमारी प्रमुख जिम्मेदारी इसी हिमालय के संरक्षण की है। इसके संवर्धन की है।

रतूड़ीजी की भावनाओं से स्वयं को जोड़ते हुए डा. पुरोहित कहते हैंलोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी यहां आते रहे और संस्कृति समृद्ध होती रही। कोलभीलकिरातयक्षगंधर्व, खस आदि जातियों ने यहां आकर अपने-अपने लोक के अनुभवों से पहाड़ की संस्कृति को सींचने का कार्य किया। वर्तमान में संस्कृति का जो स्वरूप हमारे सामने परिलक्षित होता हैवह इन्हीं पूर्वजों की देन है। संस्कृति का ही एक रूप मुखौटा नृत्य भी हैजिसकी अनेक शाखाएं हैंमसलन गल्या बल्दलखिया भूतरम्माण आदि। अच्छे प्रयास हुए तो रम्माण को यूनेस्को से विश्व धरोहर का दर्जा हासिल हुआ। आज चमोली जिले के तीन गांव सेलंगभरोसी व सलूड़ डुंग्रा इसके प्रमुख केंद्र बन गए हैं। चर्चा आगे बढ़ी तो लोकगायक प्रीतम भरतवाण बोलेसंस्कृति व्यापक शब्द है। हजारों वर्षों की सभ्यता के पश्चात हम जिस आचरण का अनुकरण करते हैंवही संस्कृति है। समाज में व्याप्त कुप्रथाएं भी संस्कृति का ही हिस्सा हैंलेकिन समय के साथ कुप्रथाएं पीछे छूटती चली जाती हैं और संस्कृति का एक आदर्श रूप जन्म लेता है। जागर भी ऐसा ही एक रूप हैजिसका आरंभ लोकमंगल की कामना के साथ होता है। जागर व्यक्तिसमाजराष्ट्रधरा और अखिल ब्रह्मांड की कामना का गीत हैजिसकी उत्पत्ति उदंकार से हुई है।
अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए वह जागर के माध्यम से अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं, ‘उदंकार ह्वे ग्ये भगवान बदरी-केदारउदंकार ह्वे ग्ये हे नारैण केदार कांठों मा’ (भगवान बदरी-केदार के आंगन में उजाला हो गया हैहे नारायण केदार हिमालय में उजाला हो गया है।) लेकिनलोककला पारखी नंदलाल भारती थोड़ा हटकर सोचते हैं। वह कहते हैंसंस्कृति को प्रस्तुत करने में कुछ घंटे लगते हैंउसे समझने के लिए पूरी जिंदगी खपानी पड़ती हैजबकि उसे बचाने में पीढ़ियां खप जाती हैं। संस्कृति गांव के आंगन में है। यही आंगन संस्कृति की पाठशाला हैपौधशाला है और अनुसंधान का केंद्र भी है। इसी आंगन को बचाने की जरूरत है और साथ ही जरूरत है लोकवाद्यों को बचाने की। सौभाग्य से जौनसारी समाज अपनी संस्कृति को बचाने के लिए तनमनधन से प्रयासरत है। यही वजह है कि गांवछानी व मजरों से होती हुई जौनसारी लोक संस्कृति आज देश-दुनिया में उत्तराखंड का गौरव बढ़ा रही है।

लोक पर हो रही इस चर्चा ने श्रोताओं को आनंदित कर दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा हैजैसे सभी की चाह हो कि यह चर्चा अनवरत चलती रहे और उनके आनंद को द्विगुणित करती रहे। लेकिनसमय की अपनी सीमाएं हैंअपनी मर्यादाएं हैं। यह बात मंचासीन पुरोधा भी समझते हैं। इसलिए चर्चा को समेटते हुए वह कहते हैंहर छोटी-छोटी विधा का दस्तावेजीकरण किया जाना जरूरी है। इसी से लुप्त होती धरोहर के संरक्षण-संवर्धन का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए व्यक्तिसमाज और सरकार के स्तर पर भी प्रयास होना चाहिए। लेकिनसभी श्रोता चाहते हैं कि बात लोक से शुरू हुई है तो लोक के रंग में डूबकर ही विराम भी ले। उनकी इन्हीं भावनाओं का आदर करते हुए प्रीतम ने भगवती पार्वती के जन्म से विवाह तक की ऐसी मनभावन लहरियां छेड़ीं कि श्रोताओं का तन-मन झंकृत हो उठा। सभी आल्हादित होकर झूमने लगे और इसी के साथ इस सत्र ने विराम लिया।