साहित्य का नारी वंदन
नारी का अब वंदन नहीं, हर मंच पर हो अभिनंदन
संवाद के प्रमुख बिंदु
– बदलनी चाहिए ऐसी सोच कि बिकेगा वही जो नारीवाद पर लिखेगा
– स्त्री विमर्श को पश्चिमी देशों से लेने की जरूरत नहीं
– सशक्तीकरण से आगे अब बराबरी के अधिकार पर हो बात
– पौराणिक समय से ही सशक्त हुआ करती थी नारी
– हर कोई समझे नारी तत्व, महिलाएं भी स्वयं को पहचानें
गणेश जोशी, जागरण
देहरादून: नारी अब अबला नहीं रही। घर की चहारदीवारी से बाहर निकल चुकी है और हर क्षेत्र में परचम लहरा रही है। जिन कार्यों को कभी पुरुषों के लिए सीमित कर दिया गया था, अब महिलाओं ने उन क्षेत्रों में भी दबदबा कायम कर लिया है। यह क्षेत्र चाहे खेल या राजनीति का हो अथवा विभिन्न विधाओं पर लेखन का। यही कारण है कि महिलाएं अब स्वयं को पुरुषों से अलग मंच नहीं चाहती हैं। वह चाहती हैं, उनका मंच भी पुरुषों के साथ साझा हो। स्त्री विमर्श करना हो या फिर किसी भी विधा पर बेबाकी से संवाद करना, हर मंच पर स्त्रियों के साथ पुरुष और पुरुषों के साथ स्त्री भी शामिल हों। यह बौद्धिक विमर्श रविवार को जागरण संवादी में आयोजित ‘साहित्य का नारी वंदन’ का है। हर विधा पर बेबाकी से लेखन करने वाली महिलाओं ने एक स्वर में नारीवाद की खुलकर आलोचना की और कहा कि इसके जरिये बड़ी चालाकी से नारी को समाज से अलग-थलग करने की कोशिश होती रही है।
जागरण संवादी के चौथे सत्र में डा. चेतना पोखरियाल ने प्रसिद्ध लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ, क्षमा कौल व अद्वैता काला का परिचय कराया और फिर प्रश्न किया कि अपनी रचनाओं में महिलाओं का चित्रण कैसे करती हैं? इस पर अद्वैता काला ने कहा कि अब नारी को सशक्तीकरण से आगे बराबरी की बात करनी है। उन्होंने अपने लेखन उदाहरण भी प्रस्तुत करते हुए कहा कि पहले उन्हें सामान्य और फिर महिलावादी करार दिया गया। जबकि, वह हर विधा और सभी विषयों पर लिखती हैं। मनीषा ने यही बात आगे बढ़ाते हुए कहा, महिलाओं को अलग मंच देना एक षड्यंत्र लगता है। ऐसा करके स्त्री लेखन को ही अलग कर दिया जाता है। जबकि, ऐसे मंचों पर पुरुषों को भी शामिल किया जाना चाहिए। विचार, अभिव्यक्ति व संतुलन के साथ समान स्तर पर मंच साझा होगा तभी कोई विमर्श अपने उद्देश्य में सफल होगा। दर्दपुर जैसे प्रसिद्ध उपन्यास की लेखक क्षमा कौल भी मनीषा से सहमति जताते हुए कहती हैं, जैसे हमारे देश में फेक सेकुलरिज्म आया, वैसे ही फेक फेमिनिज्म भी आया। जब हम पुरुष की तरह ही समाज में स्त्री के अतिरिक्त भारतीय समाज की सभी परिस्थितियों पर लेखन करते हैं, तब हमें विमर्श के लिए पुरुषों के साथ खड़ा क्याें नहीं किया जाता? ऐसा क्यों कहा जाता है कि बिकेगा वही, जो नारीवाद पर लिखेगा। पौराणिक ग्रंथ तंत्रालोक में शिव-पार्वती के संवाद और इसके जरिये नारी सशक्तीकरण की समृद्ध परंपरा का उदाहरण देकर क्षमा ने कहा कि जहां से हमने ट्रेक छोड़ा है, उस पर चलना है। लेखन को लेकर क्षमा का सीधा व स्पष्ट जवाब था, साहसी वही है, जो सच लिखे।
पुरस्कार, बेस्टसेलर होने और किसी प्रलोभन की चिंता किए बगैर लिखे। तंत्रायोग में इसी को महासाहस योग कहा गया है। परंपरा और आधुनिकता के बीच लेखन को लेकर आने वाली चुनौतियों के सवाल पर भी लेखिकाओं ने फिर नारीवाद शब्द को जमकर कोसा। इस पर मनीषा कुलश्रेष्ठ कहने लगीं, हमें स्त्री विमर्श को पश्चिमी देशों से लेने की जरूरत नहीं है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में जिन महिलाओं का जिक्र है, वह सशक्त हैं। जैसे, तारा, मंदोदरी, अहिल्या हो या द्रोपदी। पुरुषों से घिरे होने के बावजूद इनका अलग ही अस्तित्व है। दक्षिण अमेरिका की प्रसिद्ध लेखिका एलिस वाकर का जिक्र करते कहती हैं, फेमिनिज्म की जगह अब वूमनिज्म को बढ़ावा दिया जाए।जहां महिलाएं अपनी कोमलता के साथ स्वच्छंद होकर समाज में सभी कार्यों को समान रूप से कर सकें। रचनाओं में स्त्री रूप के सवाल पर भी वह नारीवाद को परिवार तोड़ने वाला करार देती हैं। लोगों ने भी उनकी रचनाओं के साथ ही महिलाओं को भोग-विलास की वस्तु समझने जैसे तमाम प्रश्न किए और उनका उत्तर भी प्राप्त किया। साथ ही अपने प्रिय लेखकों को अपने बीच पाने की खुशी भी पाठकों में साफ देखी जा सकती थी। संगिनी क्लब, उत्तरांचल महिला एसोसिएशन व हर्षल फाउंडेशन से जुड़ी महिलाएं भी इस सत्र का हिस्सा बनीं।