लखनऊ: संवादी के ‘लखनऊ सबरंग’ सत्र में न सिर्फ इस शहर के इतिहास को टटोला गया, बल्कि उन पहलुओं की भी पड़ताल हुई, जो लखनऊ को लखनऊ बनाते हैं. हमराही बने श्रोता पुराने समय से लेकर स्काटलैंड तक की यात्रा कर आए कि कैसे-कैसे इस शहर ने बदलते स्वरूप के साथ भी अपनी आत्मा को जीवंत रखा और कैसे इसका हर रंग और निखार पाता चला गया. इस यात्रा में श्रोताओं ने सत्यजीत रे से वाबस्ता वह किस्सा सुनाया, जिसने यह बताया कि लखनऊ उनके जेहन में कितनी मीठी यादों के साथ बसा हुआ था. इस सत्र में लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और रशियन भाषा की प्रोफेसर रहीं साबरा हबीब, यूनिवर्सल बुकसेलर्स के चन्द्रप्रकाश और इतिहासकार रवि भट्ट उपस्थित थे. संचालनकर्ता दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रमुख आत्म प्रकाश मिश्र ने सबसे पहले प्रो हबीब से पूछा कि लखनऊ सबरंग के रंग कौन-कौन से हैं? प्रोफेसर ने उत्तर का आरंभ इस शेर, ‘इबादतों की तरह अपना काम करती हूं. मेरा उसूल है पहले सलाम करती हूं’, से दिया और कहा कि हर रंग में एक रंग बसा हुआ है. यहां की साझी विरासत इस रंगत को दोगुना कर देती है. यहां के लोग लखनऊ से दूर चले जाएं तो भी लखनऊ उनके मन से दूर नहीं हो पाता. चन्द्रप्रकाश से जब लखनऊ के बारे में उनका दृष्टिकोण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि लखनऊ बाजारों में बिकता कोई जोश नहीं, लखनऊ एक सोच है, एक अहसास है. हम सबकी धड़कन है. उन्होंने एक अनुभव सुनाया कि 1984 में ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड और स्काटलैंड के भ्रमण पर आमंत्रित किया था. वहीं एक दिन वाशरूम जाते वक्त देखा कि पीछे एक बुजुर्गवार आ रहे हैं. मैं उनके लिए गेट खोलकर खड़ा रहा. नजदीक आए तो मैंने कहा, ‘आफ्टर यू’. उन्होंने पूछा कि आर यू फ्राम लखनऊ? मैं हैरान रह गया कि यहां तक लखनवी संस्कृति की पहचान कायम है.
चन्द्रप्रकाश ने एक और संस्मरण साझा किया कि 1975-76 की बात है. एक दिन दुकान में एक लंबी-चौड़ी शख्सियत दाखिल हुई. वह सत्यजीत रे थे. मैंने उनसे पूछा कि मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूं. उन्होंने कहा कि आप क्या मदद करेंगे, यह दुकान तो मेरी है. मुझे अचकचाया सा देख वे मुस्कुराकर बोले कि युवावस्था में मैं एपी सेन रोड पर अपने अंकल से मिलने आया करता था. उस वक्त यहां घंटों बैठकर कामिक्स पढ़ा करते थे. चन्द्रप्रकाश ने बताया अभी चार साल पहले उनके बेटे संदीप रे भी आए थे एक सीरीज शूट करने. उसमें वह रे साहब की रचना फेलूदा का वह दृश्य फिल्माना चाहते थे, जिसमें एक गली और बुकस्टोर का जिक्र है. संदीप ने बताया कि कहानी में पिता जी ने यह दृश्य ही इसलिए रचा क्योंकि उन्होंने हजरतगंज में इतना समय बिताया और वह उनके जेहन में हमेशा जिंदा रहा. लखनऊ के बारे में रवि भट्ट ने वह तथ्य बताया जिस पर हर लखनवी को गर्व होगा. उन्होंने कहा कि 1947 में जब देश दंगों में जल रहा था, लखनऊ में अच्छी मुस्लिम आबादी होने के बाद भी यहां एक भी दंगा नहीं हुआ. नवाबी दौर में यहां के शासकों ने सामाजिक सौहार्द को आगे बढ़ाया. सेकुलरिज्म रातों रात नहीं आता. शासकों ने इसे समाज में धीरे-धीरे बुना. प्रो हबीब ने बताया कि अभिवादन में धार्मिक बाधाएं न हों इसके लिए वाजिद अली शाह ने आदाब को ईजाद किया. आज यह लखनऊ की तहजीब का अहम हिस्सा है. इतिहास और संस्कृति से होते हुए वक्ताओं ने दर्शक श्रोताओं से इस बात पर विचार करने की अपील की कि वे सोचें कि आने वाली पीढ़ी के लिए हम कैसा लखनऊ छोड़कर जाएंगे. विकास और पर्यावरण को चक्की के दो पाटे नहीं बनाने, जिसमें शहर पिस जाए, बल्कि दो पटरियां बनानी हैं जिस पर सवार हमारा लखनऊ तरक्की भी करे और संस्कृति भी अक्षुण्ण रहे.