लखनऊ: अभिव्यक्ति के उत्सव ‘संवादी‘ के ‘सबमें रमे सो राम कहाए‘ सत्र में गीतकार मनोज मुंतशिर शुक्ला से दैनिक जागरण के संपादक-उत्तर प्रदेश आशुतोष शुक्ल ने मानो पूरे अवध की ओर से यह सवाल किया कि ‘यहां राम जन्मे हैं, उनके सोहर गाए जाते हैं. आप खुद राम को लेकर काफी भावुक होते हैं. फिर राम का ऐसा रूप क्यों? उन्हें क्रोध में क्यों दिखा दिया? राम तो शांति के प्रतीक हैं. इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. आपने फैंटम बना दिया? इतना साहस कैसे आया?’ जवाब में जैसे मनोज के भीतर बहुत दिनों से उमड़-घुमड़ रही भावनाएं बाहर आ निकलीं, “इसका साहस बेवकूफी से आया. बेवकूफी ही थी…” फिर दर्शकों की ओर आग्रह भरी निगाह, ‘मैंने एक गलती की… गलती सिर्फ एक पन्ना है और रिश्ता पूरी किताब है. आप एक पन्ना फाड़कर फेंक दो. पूरी किताब सहेज लो.‘ सवाल था कि आखिर पूरी फिल्म के लिए आप ही दोषी क्यों? निर्माता, निर्देशक भी तो थे? जवाब में एक शेर ‘वो सिरफिरी हवा थी संभलना पड़ा मुझे, मैं आखिरी चिराग था जलना पड़ा मुझे.‘ मनोज ने कहा, ‘फिल्म बनाने की हमारी भावना गलत नहीं थी, समझ का अभाव हो सकता है. 600 करोड़ रुपए खर्च करके कोई इस तरह की फिल्म क्यों बनाएगा. जिस तरह हमने एप्रोच किया, वह गलत था और हमने इसे दूर भी किया. दो दिन के भीतर दस हजार थियेटरों से विवादित संवाद हटा दिए गए थे. इससे पहले क्या किसी विवादित फिल्म के संवाद बदले गए? बालीवुड बायकाट के हैश टैग चले, लेकिन परिवर्तन किसी ने नहीं किया. हमें दो दिन के भीतर लोगों की भावनाओं का अहसास हो गया.‘
लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने के प्रयास में उन्होंने सुनाया, ‘वो नगमे तभी जब तुम्हें पसंद हुए, हमारा कद तो कभी इतना बड़ा था ही नहीं, तुम्हारे कंधों पर बैठे तब बुलंद हुए… आदिपुरुष की रिलीज के बाद की पीड़ा और इंटरनेट मीडिया पर अपने माता-पिता के लिए अपशब्दों का प्रयोग का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘यदि आप जीवन में कुछ करना चाहते हैं तो इसमें कामना होती है कि मां-बाप का नाम रौशन करेंगे. मेरी मां ने मुझे कुछ स्क्रीन शाट भेजे थे. 75 साल की मेरी मां और 86 साल के पिता. उनके लिए अपशब्दों का प्रयोग.‘ युवाओं से यह अपील भी कि किसी की मां के लिए गलत शब्दों का प्रयोग न करें. मैं चाहता हूं कि अवध की भाषा इतनी कलंकित न हो कि गालियों का प्रयोग करना पड़े. ‘आखिर मनोज मुंतशिर कब से शुक्ला हो गए?’ इसके जवाब में उन्होंने कहा कि ‘मैं शुरू से ही शुक्ला था. मेरे पासपोर्ट में भी मनोज मुंतशिर शुक्ला है. अमेठी में एक चाय वाले की दुकान पर रेडियो पर गजल सुनकर मुंतशिर शब्द को लगाया था. अवध का हूं तो साहिर का प्रभाव था. लोगों ने कहा तो नाम छोटा करने के लिए शुक्ला हटा दिया. बाद में जब लगा कि अब अपनी बात लोगों के सामने रख सकता हूं तो शुक्ला लिखने लगा.‘ फिर मजाकिया लहजे में कहा कि आप मेरे पिता की तरह यह न समझ लेना कि मैंने धर्म परिवर्तन कर लिया. क्यों सन 70-80 के बीच के गाने आज तक लोगों की जुबां पर हैं, क्यों आज के गाने लोग भूल जाते हैं? पर मनोज ने कहा कि लोगों की यह शिकायत सही ही है. गीतों को फिल्मों की मांग के अनुसार चलना पड़ता है. मैं यहां कैफी को सुनता था. साहिर को सुनता था. मुंबई गया तो मुझे लगने लगा कि यहां नहीं चल पाऊंगा. 15 वर्ष की प्रतीक्षा के बाद मां शारदा ने कलम पकड़ाई तो रुका नहीं. फिर भी मेरे भीतर गीत जिंदा है, ‘वो जिसे लिखकर शर्म आ जाए, ऐसा नगमा कोई लिख जाऊं क्या
शोहरतें भी हैं जरूरी, लेकिन शोहरतों के लिए बिक जाऊं क्या? अपनी पुस्तक मां, मातृभूमि और मोहब्बत के जिक्र के साथ उन्होंने पढ़ा, ‘मेरी परतें जरा सी हटा दी जाएं तो आज के मनोज मुंतशिर को ढूंढ़ना मुश्किल हो जाएगा. सिर्फ एक लड़का मिलेगा गौरीगंज अमेठी की सड़कों पर भटकता हुआ….‘ सत्र का समापन मनोज के गीत ‘तेरी मिट्टी मिल जावां‘ से हुआ.