जागरण संवाददाता, नई दिल्ली: जब तक हिंदी को एक मानक स्वरूप नहीं देंगे तबतक उसको वैश्विक भाषा के तौर पर स्थापित करना कठिन होगा। आज अगर कोई व्यक्ति आस्ट्रेलिया में, न्यूजीलैंड में, ब्रिटेन में या अमेरिका में अंग्रेजी लिखता है तो भले ही शब्दों की स्पेलिंग अलग हो लेकिन अर्थ समान होता है। हिंदी में ऐसी स्थिति नहीं है।  कोई ऐसी हिंदी लिखता है जिसमें ब्रज के शब्द अधिक होते हैं, किसी में अवधी के तो कोई अन्य आंचलिक शब्दों से भरपूर भाषा लिखता है। आंचलिक शब्दों का उपयोग हो लेकिन उस तरह के शब्दों का उपयोग हो जिसका अर्थ एक होता हो। विश्वभाषा बनने के लिए मानकीकरण बहुत आवश्यक है। ये कहना है लंदन के साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा का जो दैनिक जागरण के मंच हिंदी हैं हम पर अपनी बात रख रहे थे।
तेजेन्द्र शर्मा के मुताबिक भारत की राष्ट्रभाषा नहीं होने की वजह से अकादमिक स्तर पर हिंदी का ब्रिटेन में नुकसान हुआ। हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है जबकि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है, बांग्ला बंगलादेश की राष्ट्रभाषा है। इस वजह से उर्दू और बांग्ला को ब्रिटेन में संरक्षण प्राप्त है। 1985-86 तक ब्रिटेन के स्कूलों में ग्यारहवीं तक हिंदी एक भाषा के तौर पर पढ़ाई जाती थी। स्कूलों में हिंदी के अध्यापक होते थे। भारतवंशियों ने सोचा कि हिंदी पढ़ाकर क्या होगा तो उन्होंने अपने बच्चों को जर्मन या फ्रेंच पढ़ाना आरंभ कर दिया ताकि उनको बेहतर नौकरियां मिल सकें। ब्रिटेन के अधिकारियों ने जब देखा कि हिंदी के छात्र नहीं मिल रहे हैं तो उन्होंने हिंदी की पढ़ाई बंद कर दी। मातृभाषा पढ़ने का विकल्प रख दिया। ब्रिटेन में पंजाबियों की संख्या सबसे अधिक है। उसके बाद गुजराती हैं। जिनकी मातृभाषा हिंदी है उनकी संख्या मुश्किल से एक प्रतिशत हैं। इस वजह से स्कूलों में पंजाबी और गुजराती तो पढ़ाई जाती है लेकिन हिंदी नहीं। ब्रिटेन में हिंदी मातृभाषा वालों की संख्या नगण्य, हिंदी किसी देश की राष्ट्रभाषा नहीं तो अकादमिक स्तर पर स्कूलों से गायब हो गई।
तेजेन्द्र शर्मा के मुताबिक कोरोना महामारी की वजह से भी हिंदी को अकादमिक स्तर पर बहुत नुकसान हुआ। कैंब्रिज विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग बंद हो गया। अफ्रीकन एंड साउथ एशिय़न स्टडीज में भी हिंदी की पढ़ाई बंद हो गई। दरअसल हुआ ये कि हम भारतीयों ने हिंदी को लेकर पहले सोचा नहीं और अब स्थिति हाथ से निकल रही है। पूरी दुनिया में हिंदी की स्थिति इस बात पर निर्भर करेगी कि हिंदी की स्थिति भविष्य में भारत में कैसी रहती है। अगर भारत की वैश्विक कंपनियां अपना सारा काम काज अंग्रेजी में करती रहेंगी तो विदेश की कंपनियां भारत में अपना कारोबार हिंदी में क्यों करेंगी। अगर भारत में बैंकिंग अंग्रेजी में होते रहेगा तो विदेशी बैंक भारत में हिंदी में काम काम क्यों करेंगी।
तेजेन्द्र शर्मा ने कहा कि किसी भी भाषा को दो स्तरों पर मापा जाता है। एक बोली के तौर पर और एक भाषा के तौर पर । यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि बोली का मतलब है कि बोलना और समझना और भाषा का मतलब है लिखना और पढ़ना। भारत के बाहर जो भी साहित्य लिखा जा रहा है वो पहली पीढ़ी के भारतवंशी लिख रहे हैं। अगर मारीशस को छोड़ दें, जहां रामदेव घुरंधर और राज हीरामन जैसे लेखक हिंदी में लिख रहे हैं, तो साहित्य लेखन पहली पीढ़ी के प्रवासी ही कर रहे हैं। तेजेन्द्र शर्मा ने त्रिनिदाद का एक बेहद दिलचस्प संस्मरण सुनाया। उन्होंने बताया कि जब वो वहां गए थे पता चला कि बहुत सी बच्चियों का नाम सुहानी रात है। पूछने पर पता चला कि जो गिरमिटिया लोग आए थे उनको  जब ये फिल्मी गाना- सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे- आया तो वो बेहद पसंद आया। उन लोगों ने इस गाने के आधार पर ही अपनी बच्चियों का नाम सुहानी रात रख दिया। इसके अलावा भी हिंदी फिल्मों ने बोली के तौर पर हिंदी को पूरी दुनिया में विस्तार या है।बहुत से स्थानीय लोग भी हिंदी फिल्मों के सीन के बारे में बात करते हैं और जानना चाहते हैं कि वो क्या था। तो इस तरह से देखें तो बोली के तौर पर तो हिंदी का विस्तार हुआ है पर भाषा के तौर पर वो ठहर गई है।
उल्लेखनीय है कि हिंदी हैं हम दैनिक जागरण का अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने का एक उपक्रम है। इसके अंतर्गत ही पूरी दुनिया के हिंदी के विद्वानों, लेखकों, हिंदी के शिक्षकों और राजनयिकों के साथ हिंदी में बातचीत का आयोजन किया जा रहा है। तेजेन्द्र शर्मा से इसी कड़ी में ये बातचीत की गई थी।