नई दिल्लीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा श्रृंखला जारी है. इस व्याख्यानमाला के तहत कई अनूठे विषय उठाए जा रहे हैं. कोरोना काल में इस प्रकाशन समूह द्वारा 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' विषय पर शुरू की गई इस व्याख्यानमाला को अकादमिक जगत और साहित्य जगत में काफी सराहना मिल रही है. इस व्याख्यानमाला के तहत हिंदी के जानेमाने लेखक, आलोचक, विद्वान प्राचार्य अपने अपने वक्तव्य रख रहे हैं. वाणी डिजिटल शिक्षा श्रृंखला के इस दूसरे पड़ाव का पन्द्रहवां व्याख्यान 'भाषा के नये विमर्श और हिंदी' विषय पर हुआ. सुपरिचित आलोचक निरंजन सहाय ने इस विषय पर अपने व्याख्यान में हिंदी भाषा के नए स्वरूप पर बल दिया. उनका कहना था कि भाषा का अस्मिता, वर्चस्व, प्रतिरोध, जेंडर और वर्गीय हित से गहरा नाता होता है. भाषा में व्यक्ति, समाज और इनके साथ मिलकर भाषा अभिव्यक्ति का एक सिलसिला चलता है. समाज में वर्गीय चेतना के साथ भाषा की निर्मिति भी होती है.
भारतीय चेतना के संदर्भ में यहाँ के तर्क और संवाद की परंपरा को विवेचित करते हुए निरंजन सहाय ने दावा किया हिंदी का भाषिक संसार बहुत बहुलतावादी और जनपदीय चेतना से भरा हुआ है. हिंदी में अमीर खुसरो, विद्यापति, तुलसी, जायसी, रसखान से लेकर प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा, इन सब की भाषाओं में हिंदी के अलग-अलग रंग दिखाई देते हैं। भाषा-विमर्श पर बात करते हुए हिंदी-उर्दू के विवाद का भी ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि भाषा में जेंडर व्याकरण की दृष्टि से, भूगोल की दृष्टि से उसकी संस्कृति को समझा जा सकता है, प्रायः कहानियों में या कथाओं में दर्ज भाषा में निहित वर्गीय हित को देखते हुए उसकी विवेचना करने से हमें भाषा-विमर्श के नये रूप दिखाई देते हैं, किसी भी देश और समाज की भाषा उसके प्रतिरोधात्मक लोकतांत्रिक चेतना और उसमें निहित बहुलतावादी और स्थानीय चेतना से जीवन्त बनती है. हिंदी भाषा अपने नये तेवर में विरोधी चेतना और लोकतांत्रिक स्वरूप विकसित हो रही है.