ज़िन्दगी मुस्कुराई, बाजे पायलिया के घुंघरू, ज़िन्दगी लहलहाई…केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्ष वर्धन ने हिंदी के चर्चित साहित्यकार व पत्रकार कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर की जयंती पर इन शब्दों में नमन किया है. डॉक्टर हर्ष वर्धन ने प्रभाकर के बारे में आगे लिखा है कि वह हिंदी के श्रेष्ठ संस्मरणकारों व निबंधकारों में शामिल थे और उन्हें मानवीय गुणों के सजग प्रहरी के रूप में भी स्मरण किया जाएगा. कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' का जन्म 29 मई, 1906 को सहारनपुर ज़िले के देवबन्द गांव में हुआ था. वह मूलतः पत्रकार थे, जिन्होंने साहित्य की विशद सेवा की. ऊपर डॉ हर्ष वर्धन ने प्रभाकर जी की जिन कृतियों की चर्चा की है उनके अलावा 'माटी हो गई सोना', 'दीप जले शंख बजे', 'तपती पगडंडियों पर पदयात्रा', 'महके आंगन – चहके द्वार' उनकी कुछ और प्रमुख कृतियां हैं.
लेखक की भूमिका के प्रति कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' का दायित्वबोध कितना गहरा था, इसके उदाहरण में एक सच्चा वाकिआ काफी मशहूर है. एक बार की बात है. किसी कार्यक्रम में तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने से प्रभाकर जी की मुलाकात हो गई. पंडित जी ने अचानक से पूछ लिया, “प्रभाकर, आजकल क्या कर रहे हो?” जवाब में प्रभाकर जी ने कहा, “आपके और अपने बाद का काम कर रहा हूं.” पंडित नेहरू ने चौंक कर पूछा, “क्या मतलब हुआ इसका?” तो प्रभाकर जी का जवाब था, “पंडित जी, आज देश की शक्ति पुल, बांध, कारखाने और ऊंची-ऊंची इमारतें बनाने में लगी है. ईंट-चूना ऊंचा होता जा रहा है और आदमी नीचा होता जा रहा है. भविष्य में ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब देश का नेतृत्व ऊंचे मनुष्यों के निर्माण में शक्ति लगायेगा. तब जिस साहित्य की जरूरत पड़ेगी, उसे लिख-लिख कर रख रहा हूं.” वस्तुतः साहित्य के माध्यम से प्रभाकर जी गुणों की खेती करना चाहते थे और वह अपनी पुस्तकों को शिक्षा के खेत मानते थे जिनमें जीवन का पाठ्यक्रम था. वे अपने निबंधों को विचार यात्रा मानते थे और कहा करते थे, “इनमें प्रचार की हुंकार नहीं, सन्मित्र की पुचकार है, जो पाठक का कंधा थपथपाकर उसे चिंतन की राह पर ले जाती है.”