नई दिल्लीः हिंदी के मूर्धन्य आलोचक नंदकिशोर नवल ने इसी साल 12 मई को 83 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहा था. आज वह होते तो चौरासी के होते. वह एक ऐसे आलोचक थे, जिनमें कवि हृदय धड़कता था. उनकी कविताओं में यह लुनाई साफ दिखाई भी देती है. साहित्य से उनका लगाव उनके छात्रों और अध्यापन से जुड़ा हुआ था. वह हमेशा कहते थे कि उन्हें नहीं पता कि उनसे छात्रों को कुछ मिला या नहीं, लेकिन वे जरूर अपनी सारी कक्षाओं और छात्रों की पीढ़ियों के कृतज्ञ हैं क्योंकि उनके माध्यम से ही वे साहित्य को समझ पाए. वह हमेशा मानते थे कि साहित्य की परंपरा में पांव रखने का अर्थ ही है, ज़िम्मेदारी का अहसास. वह अहसास जिसमें परंपरा का बोध  हो. वह मानते थे कि आलोचक का व्यापार रचना से निरंतर संवाद का है और कुछ नहीं. इस संवाद में उसे निरस्त्र और निष्कवच होकर ही रचना से मिलना है, इस रूप में जैसे रचना ही उसे हर बार समृद्ध करने वाली है और हर मुलाकात एक नई मुलाकात है. तुलसी, सूरदास, कबीर, रहीम, बिहारी, निराला को उन्होंने पढ़ा ही नहीं गुना भी. उनके पुस्तकों की विविधता और आख्यान यह बताते हैं कि वह अपने अध्ययन से अपने विचारों को परिष्कृत कर सकते थे. 

 

मार्क्सवाद पर उनके विचार हों या निराला पर उनकी सोच, अपने निष्कर्षों के लिए वह अपने आदर्श रामविलास शर्मा की व्याख्याओं को अस्वीकार कर सकते थे. उनकी अपने अध्ययन का ही यह बल था कि मुक्तिबोध पर लिखते हुए उन्होंने अपने प्रिय आलोचक नामवर सिंह से असहमति जता दी. हालांकि वह इन दोनों को न केवल बड़ा बल्कि महान लेखक भी मानते रहे. ऐसा उन्होंने केवल इन्हीं दोनों के साथ ही नहीं किया बल्कि कई रचनाकारों के बारे में अपनी राय परिमार्जित की. शायद यही वजह है कि महाप्राण निराला, गजानन माधव मुक्तिबोध, बाबा नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त के अलावा धूमिल, केदारनाथ सिंह, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी का उनका अध्ययन इन लेखकों को पढ़ने वाले के लिए हमेशा एक संदर्भ बिंदु बना रहेगा. मूरतें-माटी और सोने की, कविता के आरपार, जहां शब्द सक्रिय हैं, कविता: पहचान का संकट, हिंदी कविता: अभी बिल्कुल अभी और आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास जैसी पुस्तकें साहित्य को एक बड़ा अवदान हैं. कविता के क्षेत्र में उनके संकलन कहाँ मिलेगी पीली चिड़िया, जनपद, द्वाभा, नील जल कुछ और भी धुल गया को भी शिद्दत से याद किया जाता है. नमन