रायपुरः छत्तीसगढ़ी में 'बेटी के बिदा' और 'पर्राभर लाई' जैसी कालजयी कृति के रचयिता, छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष और छत्तीसगढ़ी साहित्य को अपनी असाधारण प्रतिभा से विशिष्ट पहचान देने वाले सर्वाधिक पुराने साहित्यकारों, पत्रकारों में से एक श्यामलाल चतुर्वेदी नहीं रहे. वह नब्बे वर्ष पार कर चुके थे. पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी लंबे समय से बीमार चल रहे थे. श्यामलाल चतुर्वेदी का जन्म 1926 में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के कोटमी गांव में हुआ था. बताते हैं कि बचपन में मां के कारण उनका रुझान लेखन में हुआ. उनकी मां ने उन्हें सुन्दरलाल शर्मा की ‘दानलीला’ रटा दी थी.
साहित्य साधना के जरिए वह जीवन भर हिन्दी और छत्तीसगढ़ी साहित्य को समृद्ध बनाने की कोशिश करते रहे. 1940-41 से पं. श्यामलाल चतुर्वेदी ने लेखन आरंभ किया. शुरुआत हिंदी में की लेकिन 'विप्र' जी की प्रेरणा से छत्तीसगढ़ी में लिखने लगे. उनका मानना था कि छत्तीसगढ़ी साहित्य का मूल, छत्तीसगढ़ की मिट्टी, वहां के लोकगीत और लोक साहित्य है. चतुर्वेदी की 'जब आइस बादर करिया' जमीन से जुड़ी हुई रचना थी. चतुर्वेदी शिक्षक भी थे. अपने वक़्त में वे रायपुर-बिलासपुर करीब 114 किलोमीटर साइकिल से आना-जाना करते थे. यह उनकी सादगी थी और संघर्ष भी. वे छत्तीसगढ़ में कुछ प्रमुख अखबारों के प्रतिनिधि भी रहे हैं. इसी वर्ष उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था. वे सचमुच इसके योग्य थे. पिछले 70 सालों से छत्तीसगढ़ी साहित्य और पत्रकारिता में संलग्न थे. उनका कथा संग्रह 'भोलवा भोलाराम' काफी चर्चित हुई थी. उनके निधन से छत्तीसगढ़ में शोक की लहर छा गई, जिनमें पत्रकार, साहित्यकार, राजनेताओं सहित मुख्यमंत्री रमन सिंह भी शामिल हैं.