हिंदी के मौलिक निबंधकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्‍म 20 अग्रस्‍त, 1907 को उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा नामक ग्राम में हुआ था. उन्होंने बनारस में प्रवेशिका, इंटर व ज्योतिष में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की और मिर्जापुर के एक विद्यालय में अध्यापक हो गए. आचार्य क्षितिजमोहन सेन ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और अपने साथ उन्हें शांति-निकेतन ले गए, जहां लगभग 20 वर्षों तक वह हिंदी-विभाग के अध्यक्ष रहे. इसके बाद उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग के अध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया. साल 1949 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने द्विवेदी के पांडित्य और साहित्य सेवा का अभिनंदन करते हुए उन्हें 'डाक्टर ऑफ लिटरेचर' की उपाधि से विभूषित किया था.

हिंदी के शीर्षस्थ निबंधकार के साथ ही वह एक उम्दा समीक्षक और अद्वितीय शैली के उपन्यासकार भी हैं. उनकी प्रतिभा सर्वतोन्मुखी है और उनकी कृतियों में चिंतन, मनन के बिंब स्पष्ट परिलक्षित होते हैं. अपनी मानवतावादी विचारधारा एवं भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक के रूप में उनकी प्रसिद्धि काल के पार है. सूर साहित्य, हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर, सूरदास और उनका काव्य, प्राचीन भारत का कला विकास नाथ सम्प्रदाय, विचार वितर्क आदि उनके महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं. भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान था. मध्ययुगीन संत कबीर के विचारों, कार्य और साखियों पर उनका शोध एक उत्कृष्ट कार्य माना जाता है. उनके ऐतिहासिक उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, पुनर्नवा, चारु चन्द्र लेखा को हिंदी साहित्य में क्लासिक्स का दर्जा हासिल है. उनके यादगार निबंध नाखून क्यों बढ़ते हैं, अशोक के फूल, कुटज और आलोक पर्व काफी चर्चित रहे हैं. द्विवेदी जी की विशेषता यह रही कि उन्होंने जो भी लिखा, साधिकार लिखा. उनके निबंधों के विषय भारतीय संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य के अलावा विविध धर्मों और संप्रदायों के विवेचन पर फोकस रहे.

 

हजारी प्रसाद द्विवेदी की चर्चित कहानियों और लेखों में आम फिर बौरा गए, शिरीष के फूल, भगवान महाकाल का कुंथानृत्य, महात्मा के महा परायण के बाद, ठाकुर जी की वटूर, संस्कृतियों का संगम, समालोचक की डाक, माहिलों की लिखी कहानियां, केतु दर्शन, ब्रह्मांड का विस्तार, वाह चला गया, साहित्यिक संस्थाएं क्या कर सकती हैं, हम क्या करें, मुनष्य की सर्वोत्तम कृति: साहित्य, आंतरिक सुनिश्चिता भी आवश्यक है, समस्याओं का सबसे बड़ा हल, साहित्य का नया कदम, आदिकाल के अंतरप्रांतीय साहित्य का ऐतिहासिक मह्त्त्व शामिल है. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत बंगाली, पंजाबी, गुजराती, पाली, प्राकृत, और अपभ्रंश सहित कई भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने विचारात्मक और आलोचनात्मक दोनों तरह के निबंध लिखे, जिनमें दार्शनिक तत्वों की प्रधानता के साथ ही सामाजिक जीवन संबंधों की व्याख्या भी शामिल थी. साहित्य में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने साल 1957 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया था. साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता हिंदी के इस महान सेवक ने 19 मर्इ, 1979 को दुनिया को अलविदा कह दिया.

जागरण हिंदी की ओर से आचार्य द्विवेदी की जयंती पर नमन!