मुंबई: “हमारा वैदिक ज्ञान नेतृत्व के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करता है. सार्वजनिक जीवन में नेतृत्व के लिए दूरदर्शिता, चरित्र और राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है. हमने देखा है कि पिछले 10 वर्षों में दूरदर्शी नेतृत्व क्या चमत्कार कर सकता है. राष्ट्र निराशा के अशांत परिदृश्य से आशा और संभावना के एक नए दौर की ओर बढ़ रहा है.” महाराष्ट्र के मुंबई में ‘नेतृत्व और शासन’ विषय पर आयोजित प्रथम ‘मुरली देवड़ा स्मृति संवाद’ के उद्घाटन भाषण में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह बात कही. उन्होंने कहा कि हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता की भूमि हैं और उनमें निहित ज्ञान हमारा मार्गदर्शन करता है. भगवद्गीता भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश के माध्यम से नेतृत्व की शाश्वत शिक्षा प्रदान करती है. भगवद्गीता के श्लोक “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः, स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते.” जिसका अर्थ है “एक महान व्यक्ति जो कुछ भी करता है, दूसरे लोग उसका अनुसरण करते हैं. वह अपने अनुकरणीय कार्यों से जो भी मानक स्थापित करता है, दुनिया उसका अनुसरण करती है,” का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि यह श्लोक नेताओं की गहन जिम्मेदारी को रेखांकित करता है, क्योंकि उन्हें स्वाभाविक रूप से पथप्रदर्शक, आदर्श व्यक्ति के रूप में लिया जाता है, जिनके कार्य समाज की दिशा निर्धारित करते हैं. उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारत, जहां मानवता का छठा हिस्सा रहता है, सबसे पुराना, सबसे बड़ा, सबसे जीवंत और सबसे क्रियाशील लोकतंत्र है.

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा राष्ट्र है, जहां गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संवैधानिक रूप से संरचित लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं. उन्होंने कहा कि सबसे पहले, मैं लोकतंत्र में शासन के स्रोत पर ध्यान केंद्रित करता हूं. हमारे संविधान की प्रस्तावना में शासन के आधारभूत स्रोत और आधार के रूप में ‘हम लोग’ को इंगित किया गया है. संविधान की प्रस्तावना में शासन का उद्देश्य न्याय, समानता, सभी के लिए बंधुत्व को भी दर्शाया गया है. हमें संप्रभुता के अंतिम भंडार ‘हम लोग’ की रूपरेखा की सराहना करनी चाहिए. एक संप्रभुता जिसे हम कमज़ोर करने या दूर करने का जोखिम नहीं उठा सकते. धनखड़ ने कहा कि हम लोग चुनावी मंचों के माध्यम से संसद, विधानमंडल, पंचायत, नगर पालिकाओं का गठन करते हैं और राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं. संप्रभुता के इस भंडार की पवित्रता लोकतांत्रिक शासन के लिए आवश्यक है. कल्पना करें कि अगर हम अपनी संप्रभुता से वंचित हो गए तो हमारा क्या होगा. वर्तमान समय में ‘हम लोग’ की अखंडता पर दबाव डाला जा रहा है और उसे चुनौती दी जा रही है तथा यह चुनौती कई तरीकों से सामने आ रही है. इसे बनाए रखने और बनाए रखने के लिए नेतृत्व के सामने एक कठिन कार्य है. प्रलोभनों के माध्यम से बड़े पैमाने पर धर्मांतरण पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए, उपराष्ट्रपति ने कहा, “यह बीमारी, जो कोविड से भी अधिक गंभीर है, प्रलोभनों के माध्यम से धर्मांतरण से जुड़ी हुई है, जिसमें कमजोर वर्गों को फंसाने की कोशिश की जा रही है. हाशिए पर रहने वाले, आदिवासी, कमजोर लोग इन प्रलोभनों और ललचाने का आसान शिकार बन जाते हैं. आस्था आपकी अपनी है. आस्था अंतरात्मा से तय होती है. भारतीय संविधान आस्था की स्वतंत्रता देता है. लेकिन अगर इस आस्था को प्रलोभनों का बंधक बना लिया जाता है, तो मेरे हिसाब से यह आस्था की स्वतंत्रता का हनन है.”