नई दिल्ली: इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह विश्वास करना कठिन होता है कि यह लेखक का पहला उपन्यास है. लेखक ने इस उपन्यास में आजादी के बाद संघर्षों से जूझते हुए देश-समाज का बहुत बारीकी से चित्रण किया है. यह उपन्यास में इस समय से उस समय में जाने की यात्रा है. इसकी कहानी बहुत प्रामाणिक चीजों के इर्द गिर्द बुनी गई है जो इतनी रोचक व दिलचस्प है कि शुरू से अंत तक पाठक को बांधकर रखती है. ये बातें गौतम चौबे के उपन्यास ‘चक्का जाम’ के लोकार्पण व परिचर्चा के दौरान वक्ताओं ने कही. इस मौके पर प्रो रवि रंजन ने कहा कि यह उपन्यास राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में मध्यम वर्ग के योगदान को रेखांकित करता है. मैंने इस उपन्यास का अध्ययन एक समाज विज्ञानी की नजर से किया है. मैंने पाया कि यह महज एक औपन्यासिक कृति नहीं बल्कि एक जरूरी सामाजिक पाठ भी है. उपन्यास हमें यह भी दिखाता है कि आजादी के तुरन्त बाद के दौर में समाज और सरकार के संबंध किस तरह से उभर रहे थे. यह उपन्यास एक साथ बहुत सारे पहलुओं पर बात करता है. इसमें मध्यम वर्ग का रोजमर्रा के जीवन का संघर्ष है तो पलायन की पीड़ा भी है. त्रिपुरारी शरण ने कहा कि यह उपन्यास अपने आप में उत्कृष्टता का नमूना है. मेरे ऐसा कहने का आधार यह है कि इस उपन्यास की भाषा में लेखक ने जो नवाचार किया है वह अपनी तरह का एक अनूठा प्रयोग है. साहित्य लेखन में देशज शब्दों का इस्तेमाल पहले भी होता रहा है लेकिन इस उपन्यास में लेखक ने सही जगह पर और उपयुक्त सन्दर्भों में जिन देशज शब्दों का चयन किया है वह तारीफ के काबिल है. उन्होंने कहा, लेखक ने बहुत सारी प्रामाणिक चीजों के इर्दगिर्द इसकी कहानी बुनी है. अगर कोई मुझसे पूछे कि सन 74 की रेलवे हड़ताल के बारे में जानने के लिए कौनसी एक किताब पढ़ें तो मैं उसे यही उपन्यास पढ़ने के लिए कहूंगा. बिलकुल सधी हुई भाषा में लिखे गए इस उपन्यास की रोचकता शुरू से अंत तक बरकरार रहती है. इसमें जातीय व्यवस्था का इस तरह से उल्लेख किया गया है कि उसको समझने के लिए आपको अलग से कोशिश करने की जरूरत नहीं पड़ती.
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार हरीश त्रिवेदी ने कहा कि यह एक पात्र सघन उपन्यास है, इसमें बहुत से पात्र आते हैं और हर किसी की कहानी आपको उतना ही छूती है. इसमें जीवन की सहज सुंदरता है. लेखक ने जिस महारत से इस उपन्यास को लिखा है कि इसे पढ़ते हुए यह भरोसा करना कठिन हो जाता है कि यह उनका पहला उपन्यास है. पाठक जब इसे पढ़ने बैठता है तो इसकी कहानी उसे बांध लेती है. इसमें हम सबके लिए कुछ न कुछ जरूर है. ज्यादातर लोग इस कहानी को पढ़ते हुए पात्रों से अपना जुड़ाव महसूस कर पाएंगे. उपन्यास के लेखक गौतम चौबे ने कहा, मेरे जीवन के शुरुआती बीस बरस एक रेलवे कालोनी में बीते हैं. वहां मेरे आसपास जो लोग रहते थे उनकी यादों में 1974 की रेलवे हड़ताल की स्मृतियां कई अलग-अलग रूपों में दर्ज हैं. मैंने उनमें से कुछ किरदारों के पास बैठकर उनकी कहानी को सुना और उस समय के अखबारों, किताबों और सिनेमा को देखकर उस समय और हालात को समझने की कोशिश की. उसी से इस उपन्यास की कहानी बनी है. यह कहानी रेलवे के बेटे-बेटियों की है. यह कहानी उस काल में जो भी था, उन सबकी है. कार्यक्रम का आयोजन आत्मिका फाउंडेशन और वसुधैव विमर्श फाउंडेशन के सहयोग से प्रकाशक राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया. इस दौरान कई साहित्यकारों के साथ बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी उपस्थित थे.