जून के पहले हफ्ते में ही उनका जन्म हुआ और इसी हफ्ते में उन्होंने दुनिया से रवानगी की, पर 72 साल की अपनी लंबी ज़िंदगी में उन्होंने भारतीय साहित्य, पत्रकारिता और सिनेमा जगत को वह दिया, जिसे हमेशा याद रखा जाना चाहिए. जी हां हम बात कर रहे हैं ख्वाजा अहमद अब्बास की. आमजन से हमदर्दी, मानवीयता में अटूट विश्वास, स्त्री की पीड़ा के गहरी पारखी और भ्रष्ट नौकरशाही से दो-दो हाथ करने वाले फिल्मकार-कहानीकार ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून, 1914 को हरियाणा के पानीपत में हुआ था, और 1 जून, 1987 को मुंबई में उनका निधन. वह जितने बड़े फिल्मकार थे, उतने ही बड़े लेखक. ख्वाजा अहमद अब्बास की कलम की दुनिया बहुत बड़ी थी. उनकी जितनी उम्र थी उतनी ही उन्होंने किताबें भी लिखीं. अख़बारों और रिसालों में आलेख का तो कहना ही क्या. कहते हैं हर बुधवार को 'ब्लिट्ज' में उनका स्तम्भ, अंग्रेजी में 'द लास्ट पेज' और उर्दू में 'आज़ाद कलम' शीर्षक से छपता था. इसे उन्होंने चालीस साल लगातार लिखा, जिसमें दोनों ज़बानों के विषय भी अक्सर अलग होते थे. कहते हैं कि दुनिया में अपने ढंग का यह एक अनोखा रिकॉर्ड है.
उम्दा कहानीकार तो वह थे ही. उनकी याद में कभी बीबीसी ने एक लंबा कार्यक्रम प्रसारित किया था और लेख भी छापा था, जिसमें अब्बास के कई दोस्तों ने उनकी लेखनी का लोहा माना था. इसमें एक खास टिप्पणी थी, उपन्यासकार कृश्न चन्दर की, जिन्होंने अब्बास के कहानी संग्रह 'पाओं में फूल' के प्राक्कथन में लिखा था, “जब मैं अपनी, इस्मत और मंटो की कहानियों को पढ़ता हूं तो मुझे लगता है कि हम लोग एक ख़ूबसूरत रथ पर सवार हैं. जबकि अब्बास की कहानियों से लगता है जैसे वो हवाई जहाज़ पर उड़ रहा हो…. हमारे रथों में चमक है. उनके पहियों तक में नक्काशी है. उनकी सीटों में बेल बूटे लगे हुए हैं. उनके घोड़ो की गर्दनों से चांदी की घंटियां लटक रही हैं. लेकिन उनकी चाल बहुत सुस्त है. उनकी सड़के गंदी हैं और उनमें बहुत गड्ढे हैं. जबकि अब्बास के लेखन में कोई गड्ढे नहीं हैं. उनकी सड़क पक्की और समतल है. ऐसा लगता है कि उनका कलम रबर टायरों पर चल रहा है. पश्चिम में साहित्य और पत्रकारिता की सीमाएं धुंधली पड़ रही हैं. वाक्य छोटे होते जा रहे हैं. हम लेखकों में ये ख़ूबी सिर्फ़ अब्बास में है.”