भोपालः लक्ष्मीनारायण पयोधि का काव्य नाटक 'लमझना' अपने मंचीय प्रदर्शन के श्रेष्ठ दौर में है. लमझना विषय पर आधारित यह नाटक अलग- अलग निर्देशकों द्वारा अलग -अलग मंचों पर न केवल खेला जा चुका है, बल्कि उसे खूब सराहना भी मिली है. दरअसल लमझना गोंड, बैगा और कोरकू आदि जनजातियों में प्रथा है. इस प्रथा के तहत बेटियां पहले अपने पति के घर नहीं जाती, बल्कि दूल्हा घर आता है. लमझना उपयुक्त वर के चयन की प्रथा है. इसके अनुसार बेटी के लिए एक ऐसे युवक को घर में रखकर परखा जाता है, जो परिवार की जिम्मेदारी संभाल सके. परिवार की उम्मीदों पर खरा उतरने पर ही शादी की जाती है. इस जनजातीय प्रथा पर लक्ष्मीनारायण पयोधि द्वारा काव्य नाटक 'जमोला का लमझना' जब लिखा गया, तब वरिष्ठ रंगकर्मी आलोक चटर्जी के निर्देशन में रवींद्र भवन में इसका मंचन किया गया था. इस नाटक में पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर जीव-जगत के विस्तार तक की प्रक्रिया को प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया था. तत्पश्चात एक घंटा 15 मिनट के इस नाटक में संस्कृति के विस्थापन की कहानी दिखाई गई.
जमोला का लमझना में आदिवासी सुकमन द्वारा अपनी बेटी जमोला के लिए बुधरू को लमझना बनाकर लाया जाता है. बुधरू घर के सारे काम अपने भावी ससुर के बताए अनुसार करने की कोशिश करता है. जमोला और बुधरू हाट, बाजार और जंगल में महुआ बीनने भी जाते हैं. इस प्रकार की संगति से जमोला बुधरू से मन ही प्रेम करने लगती है. पर जमोला का पिता सुकमन थोड़े कठोर स्वभाव का है।.बुधरू उसकी कसौटी पर खरा नहीं उतरता और वह उसे वापस उसके घर भेज देता है। जमोला को इस बात का पता चलते ही वह पिता से विद्रोह करती है और अपने प्रेम को वापस पाना चाहती है. अंत में जमोला का पिता बुधरू को वापस लाने के लिए मान जाता है और दोनों की शादी हो जाती है. पयोधि द्वारा लमझना पर आधारित काव्य नाटिका का मंचन मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में रंग प्रयोगों के प्रदर्शन की साप्ताहिक श्रृंखला 'अभिनयन' के अंतर्गत भी हुआ था. यहां यह नाटक प्रतिभाशाली युवा रंगकर्मी ज्योति दुबे के निर्देशन में हुआ था. उसके बाद ज्योति दुबे के निर्देशन में ही भोपाल के विभिन्न नाट्योत्सवों के अलावा 'मुंबई रंग महोत्सव' में भी इसकी अनेक प्रस्तुतियां हुईं. अब एक बार फिर ज्योति दुबे के निर्देशन में काव्यनाटक 'लमझना' मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय के यूट्यूब चैनल पर लाइव प्रसारित हो रहा है.