लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में ‘निरंजन‘ कार्यक्रम के तहत विचार और संगीत के कई सत्र आयोजित हुए. त्रिसामा आर्ट्स द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में ‘नाथ योगियों और भक्ति कालीन संतों का लोक पर प्रभाव‘ और ‘भारतीय धर्म साधना में निरंजन तत्व‘ पर विचार सत्र के अलावा ‘अनहद नाद‘ नामक संगीत सत्र भी आयोजित हुआ. सबद और नाद के सौंदर्य से युक्त इस आयोजन की अतिथि पद्मश्री से सम्मानित लोक साहित्य मर्मज्ञ डा विद्या विंदु सिंह, प्रो कैलाश देवी सिंह एवं डा श्रद्धा शुक्ल थे. ‘नाथ योगियों और भक्तिकालीन संतों का लोक पर प्रभाव‘ सत्र का संचालन सुघोष मिश्र ने किया. सत्र के वक्ता प्रेम शंकर मिश्र ने भक्त कवियों द्वारा भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण के लीला-वर्णन एवं नाम-स्मरण पर बात रखी. उन्होंने समसामयिक समस्याओं के समाधान में इन दो युगपुरूषों के जीवन को कैसे चरितार्थ किया जा सकता है, इस पर अपने विचारों से अवगत कराया. उन्होंने कहा कि मंदिर बनें किंतु दिलों के मंदिर संकीर्ण न हों. उन्होंने सामाजिक समरसता को एक स्वस्थ समाज के लिए महत्त्वपूर्ण बताया. डा चारुशीला सिंह ने अक्क महादेवी, लल्लेश्वरी, दयाबाई, सहजोबाई, मीराबाई आदि कवयित्रियों में सामंती परिवेश से विद्रोह, साहस, स्वातंत्र्य बोध, बहादुरी, दृढ़ता और भक्ति की शक्ति आदि को रेखांकित किया तथा बताया कि इन भक्त कवयित्रियों ने अपने लिए एक स्वायत्त स्थान बनाया और विस्तृत आध्यात्मिक दुनिया का हिस्सा बनकर अगली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बनीं. उन्होंने रामचरितमानस को मन की ग्रंथियां खोलने वाला ग्रंथ बताया और कहा कि उसे पढ़कर मूल्य ग्रहण करने से पारिवारिक और गृहस्थ जीवन की तमाम समस्याएं दूर हो सकती हैं. डा मधुसूदन उपाध्याय ने नाथ संप्रदाय की साधना पद्धति पर प्रकाश डाला. उन्होंने लोक में व्याप्त नाथ सम्प्रदाय के प्रति कुछ भ्रामक अवधारणाओं का खंडन किया और यह स्थापित किया कि नाथ संप्रदाय वृहद सनातन धर्म का अविच्छिन्न अंग है जिसमें शाक्त और शैव दोनों पद्धतियां समाहित हैं. उन्होंने नाथ संप्रदाय के हठ योग पर प्रकाश डाला और उसके प्रचार-प्रसार हेतु सांस्थानिक उपक्रमों से अधिक आवश्यक बाल्यकाल में ही योग्य गुरु की खोज को बताया. सत्र के अंत में कशिश भारद्वाज ने भजन गायन किया.
द्वितीय सत्र ‘भारतीय धर्म साधना में निरंजन तत्व‘ का संचालन अभिषेक शर्मा ने किया. सत्र के वक्ता डा ओमप्रकाश पाण्डेय ने वैदिक वाङ्मय में निरंजन तत्त्व की विस्तृत व्याख्या की. उन्होंने सनातन धर्म में ईश्वर के निर्गुण-सगुण स्वरूप पर प्रकाश डाला और ‘न तस्य प्रतिमा‘ पर आचार्यों के मत-मतांतर का रोचक प्रसंग सुनाया. ज्ञान और भक्ति पर विद्वत्तापूर्ण विचार रखने के बाद उन्होंने १६वीं शताब्दी के कृष्णभक्त आचार्य मधुसूदन सरस्वती का उद्धरण देते हुए भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठतर बताया. श्री प्रमोद मिश्र ने एकांगी सहिष्णुता को ख़तरनाक बताया और कहा कि सभी धर्मों को इसका ध्यान रखना चाहिए. संतों और योगियों की वाणियों पर बात करते हुए उन्होंने उनके संदेश को समाज के लिए आवश्यक बताया. आचार्य मिथिलेशनंदिनी शरण ने सूत्रात्मक शैली में बहुत सधा हुआ, विषय पर केंद्रित, ज्ञानप्रद वक्तव्य दिया. उन्होंने निरंजन तत्त्व की विस्तृत व्याख्या की. वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत के साथ कबीर, तुलसी, मीर और ग़ालिब आदि को उद्धृत करते हुए उन्होंने धर्म, साधना और निरंजन तत्व पर श्रोताओं का मार्गदर्शन किया. उन्होंने षड् दर्शन में तत्त्व चिंतन को विश्लेषित किया तथा सगुण और निर्गुण को परिभाषित करते हुए प्रतिमा शब्द की व्याख्या की. धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि स्वरूप की रक्षा ही धर्म है. कार्यक्रम के अंतिम सत्र ‘अनहद नाद‘ में दिल्ली से पधारे क्षितिज माथुर ने कबीर के पद ‘राम निरंजन न्यारा रे‘, ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया‘ और तुलसी के ‘श्रीरामचन्द्र कृपालु भज मन‘ गाकर कार्यक्रम का समापन किया. कार्यक्रम के आयोजक अभिषेक शर्मा और सुघोष मिश्र ने अतिथियों का स्वागत एवं धन्यवाद ज्ञापन किया. संचालन गरिमा तिवारी ने किया. श्रोताओं में प्रो प्रकाश चंद्र गिरि, डा गौरव पाण्डेय, डा जितेन्द्र कुमार शुक्ल, डा आलोक कुमार द्विवेदी, शिवम सिंह, राघव मिश्र, मणि विक्रम सिंह, विनीता मिश्र, कल्पना गर्ग के साथ ही शहर के गणमान्य नागरिक, अध्यापक, प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार एवं छात्र-छात्राएं उपस्थित थे.