यूँ तो पहले भी कई बार ‘नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले’ में आना हुआ है, लेकिन इस बार माहौल कुछ बदला-बदला सा है। यह जो बदलाव है यह कई कारणों से है, पहला कारण तो ‘प्रगति मैदान’ में किया गया ध्वंस तथा उसके पश्चात होने वाला निर्माण है। हर निर्जीव वस्तु को लेकर हम किसी प्रकार के मोह में बँधे होते हैं। यह मोह होता है उसके आकार और प्रकार को लेकर। ‘प्रगति मैदान’ का अर्थ होता था पिरामिड की शक्ल के वह बड़े-बड़े हॉल, जो अब नहीं हैं, जो मेरे जैसे यात्रियों को दिल्ली आते और जाते समय ट्रेन की खिड़की से दिखाई देते थे और हम बच्चों को दिखाते थे कि देखो बेटा वह है ‘प्रगति मैदान’। निर्माण कार्य के कारण बंद कर दिए गए 1 एवं 10 के अलावा सारे के सारे प्रवेशद्वार भी पुस्तक मेले की राह में एक बाधा हैं, खैर….  निर्माण हमेशा नॉस्टेलजिया को ही चोट पहुँचाता है। इन सबके बावजूद भी पुस्तक मेले में पाठकों की संख्या पर कोई विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिला है। यह भी है कि इस बार ऐसा पहली बार हुआ है कि लगभग सारे प्रकाशनों के पास कई-कई महत्वपूर्ण किताबें आई हुई है, ऐसे में पाठक के सामने यह चुनौती तो है ही कि वह क्या खरीदें और क्या नहीं खरीदें। एक पाठक के रूप में यह चुनौती मेरे सामने भी है, गीताश्री की दो किताबें उपन्यास ‘हसीनाबाद’ और कहानी संग्रह ‘लेडीज सर्कल’, मनीषा कुलश्रेष्ठ का कहानी संग्रह ‘किरदार’, प्रज्ञा का पहला उपन्यास ‘गूदड़ बस्ती’, आकांक्षा पारे का कहानी संग्रह ’72 धड़कनें 73 अरमान’, योगिता यादव का उपन्यास ‘ख्वाहिशों के खांडव वन’, भालचंद्र जोशी का पहला उपन्यास ‘प्रार्थना में पहाड़’, कवि अशोक कुमार पांडे का कश्मीर पर किया गया वृहद शोधकार्य ‘कश्मीर नामा’, सुधा ढींगरा का कहानी संग्रह ‘सच कुछ और था’, प्रत्यक्षा का कहानी संग्रह ‘तुम्हारा घोड़ा किधर है’, गौतम राजरिशी का पहला कहानी संग्रह ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ और ऐसी न जाने कितनी किताबें हैं, जो इस बार खरीदने की लिस्ट में शामिल हैं, मेरी भी और पाठकों की भी। ये पुस्तकें पाठकों की पसंद बनी हुई हैं। दिल्ली का मौसम पाठकों के रास्ते में इस बार कोई अवरोध नहीं पैदा कर रहा है, हाँ यह ज़रूर है कि ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ चाहता तो व्यवस्थाएँ और बेहतर हो सकती थीं, सूचना केंद्र और बेहतर हो सकते थे। लेकिन नकारात्मक चीजें तो हर अच्छे आयोजन में खोजी जा सकती हैं और इन को इग्नोर करना बेहतर होता है। एक बड़ा आयोजन करना और किस प्रकार करना, यह वही जानता है जो आयोजन करता है। इधर लेखक मंच पर भी लगातार चहल-पहल बनी हुई है, हालाँकि कुल मिलाकर, घुमा-फिराकर कुछ चेहरे बार-बार, दिन भर मंच पर दिखाई दे रहे हैं, जिसके कारण दोहराव की स्थिति निर्मित हो रही है। फिर भी लेखक और पाठक के बीच संवाद का यह एक बेहतरीन स्थान साबित हो रहा है। पाठक आते हैं, बैठते हैं, सुनते हैं, पसंद नहीं आता है, तो उठ कर चले जाते हैं। यह जो पाठक के पास च्वाइस है यह भी लेखक के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है कि लेखक मंच तक आ चुके पाठक को वह किस प्रकार अपने वक्तव्य में बाँधे और फिर किस प्रकार उसको अपने स्टॉल तक भेजे, अपनी उस पुस्तक को खरीदने, जो इस विश्व पुस्तक मेले में आई है। मेरे लिए भी यह एक सुखद अनुभव रहा कि लेखक मंच पर किए गए मेरे ग़ज़ल पाठ को सुनकर श्रोताओं में खड़े कुछ युवा तुरंत मेरे प्रकाशक के स्टॉल पर गए और वहाँ से मेरा नया ग़ज़ल संग्रह ‘अभी तुम इश्क़ में हो’ खरीद कर ले आए और कार्यक्रम के बाद तुरंत मेरे आस-पास एकत्र हो गए उस पर हस्ताक्षर करवाने और सेल्फी लेने। उन युवाओं ने ही माउथ पब्लिसिटी कर के उस पुस्तक की खासी बिक्री करवा दी। यह सचमुच बड़ा दिलचस्प है कि किसी लेखक को सुनकर, उससे प्रभावित होकर पाठक उसकी किताब खरीदने पहुँच जाए, यह अभी तक अंग्रेज़ी में होता था लेकिन हिंदी में भी यह होते देखना सुखद है। यह भी अच्छा लग रहा है कि पाठक खूब किताबें खरीद रहा है, हिंदी को लेकर छाती पीटने वालों को एक बार पुस्तक मेले में जरूर आना चाहिए कि वह बार-बार जो कहते हैं कि हिंदी खत्म हो रही है, हिंदी खत्म हो रही है, उसका उत्तर विश्व पुस्तक मेले में किताबों पर टूट रहे पाठकों की संख्या से उन्हें मिल जाएगा।