जागरण संवाददाता, नई दिल्ली: हिंदी भारत की राजभाषा अवश्य है पर सही अर्थों में ये एक अंतराष्ट्रीय भाषा भी है। हिंदी विश्व में दूसरी सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषा है। एक और महत्वपूर्ण कार्य जो हिंदी भाषा कर रही है वो ये है कि दुनिया के अलग अलग देशों में रहनेवाले भारतीयों को आपस में जोड़ रही है। हिंदी फिल्मों, नाटकों, गीत संगीत का जिस तरह से पूरी दुनिया में लोकप्रियता बढ़ी है उससे भी सकारात्मक संदेश मिलते हैं। इस समय दुनिया के करीब 150 देशों में हिंदी की उपस्थिति है। हम कह सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर हिंदी की उपस्थिति अत्यंत व्यापक और विविधतापूर्ण है। यह कहना है आयरलैंड में भारत के राजदूत अखिलेश मिश्र का। अखिलेश मिश्र विश्व हिंदी के अवसर पर दैनिक जागरण के ‘हिंदी हैं हम’ के मंच पर अपनी बात रख रहे थे।

उन्होंने हिंदी भाषियों को छह वर्गों में बांटकर हिंदी की चुनौतियों पर अपनी राय रखी। उनके मुताबिक हिंदी का एक खंड वो है जिसकी मातृभाषा हिंदी है या वैसे लोग जो उन प्रदेशों में रहते हैं जहां हिंदी का बाहुल्य है। दूसरा खंड उन लोगों का जो लोग ऐसे प्रदेशों में रहते हैं जहां की प्राथमिक भाषा हिंदी नहीं है, लेकिन एक भाषा के तौर पर लोग हिंदी का भी उपयोग करते हैं। तीसरा खंड उन लोगों का है जो प्रवासी भारतीय हैं, जिनका पालन-पोषण भारत में हुआ। शिक्षा यहीं मिली। फिर वो विदेश में जाकर बस गए। उनके बच्चे भी वहीं रह रहे हैं। चौथा वर्ग उन लोगों का है जो गिरमिटिया हैं, जिनके पूर्वज विदेश में जाकर बस गए और अब वो कई पीढ़ियों से वहीं रह रहे हैं। उस देश में उनका राजनीतिक महत्व भी है। पांचवीं श्रेणी ऐसे भारतीयों की है जिनके पिता या दादा विदेश जाकर बसे थे लेकिन अब वो यूरोप, अमेरिका या कनाडा के शहरों में नौकरी के सिलसिले में गए। ऐसे लोगों का भारत से संबंध तो है पर वो सीधे-सीधे हिंदी नहीं जानते हैं। छठा वर्ग उन लोगों का है जो विदेशी हैं और किन्हीं कारण से हिंदी सीखना चाहते हैं। हिंदी को लेकर इन सबकी अलग अलग चुनौतियां हैं ।

अखिलेश मिश्र के मुताबिक हिंदी की चुनौती संख्याजनित नहीं है। अगर संख्या के आधार पर भी देखें तो पिछले चार दशक में हिंदी का विस्तार हुआ है। उनके मुताबिक 1971 की जनगणना में मातृभाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या 37 प्रतिशत थी जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 44 प्रतिशत हो गई। हिंदी बोलने समझने वालों का आंकड़ा करीब 100 करोड़ के पार पहुंचता है। अखिलेश मिश्र ने कहा कि हिंदी के विस्तार और समृद्धि की जिम्मेदारी हिंदी समाज की है, सरकार की नहीं। सरकारी कानून से कोई भाषा समृद्ध नहीं हो सकती है। उन्होंने हिंदी की तुलना में अंग्रेजी के आंकड़े भी बताए। उनके मुताबिक इस वक्त देश में सिर्फ 12 प्रतिशत लोग हैं जो अंग्रेजी समझते हैं और सिर्फ दशमलव शून्य दो प्रतिशत आबादी की मातृभाषा अंग्रेजी है।

हिंदी के सामने अखिलेश मिश्र को मुख्यतया तीन चुनौती नजर आती है। पहली ये कि भारत में अधिकांश लोग अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़कर नहीं आते हैं। जब वो अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लोगों के सामने आते हैं तो उनके अंदर एक कुंठा जन्म ले लेती है। उनका जो गर्वबोध होना चाहिए वो उभर कर सामने नहीं आ पाता है। परिणाम ये होता है कि उनका कृतित्व और व्यक्तित्व समग्रता में नहीं उभरता। दूसरी चुनौती वो भाषाई झगड़े को मानते हैं। जब भी भारतवर्ष की बात होती है या थी तो हिमालय से लेकर समंदर तक की बात होती है। किसी भी प्राचीन भारतीय ग्रंथ में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि भाषा के नाम पर इस भूभाग पर कभी विवाद हुआ हो। कभी भाषा संपर्क में अड़चन बनी हो। अंग्रेजों ने अपना राज मजबूत करने के लिए भाषा के नाम पर भारत के लोगों को बांटने का खेल खेला। इससे भारत की जनता के बीच वैमनस्यता पैदा कर दी। भाषागत दूषित राजनीति जो अपने ही लोगों को एक दूसरे के विरोध में खड़ा कर देती है। तीसरी चुनौती है अपनी लिपि को बचाने की। भाषा का मूल है लिपि। प्रत्येक अक्षर सिर्फ संकेत मात्र नहीं होता है वो मनन और ध्यान का पात्र होता है। जब अक्षर से शब्द बनता है तो ज्ञान का द्वार खुलता है। आज हिंदी और संस्कृत को रोमन में लिखने की जो पद्धति आरंभ हुई है वो हिंदी के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।

अखिलेश मिश्र ने हिंदी को लेकर ऐतिहासिक भूलों की ओर भी इशारा किया। उन्होंने याद दिलाया कि स्वतंत्र भारत का पहला भाषण किस भाषा में दिया गया और उसको कितने लोगों ने समझा होगा। उन्होंने ये भी प्रश्न उठाया कि भारत का संविधान किस भाषा में लिखा गया है। वो हिंदी में तो नहीं है। किसी भारतीय भाषा में भी नहीं है। हमारे संविधान के अनुवाद में वो सुग्राह्यता नहीं है, वह मौलिकता नहीं है जो स्वत:स्फूर्त कृति में होती है। उन्होंने कहा कि इस तरह की धारणा से हिंदी का प्रचार प्रसार कैसे होगा। उन्होंने स्पष्टता के साथ कहा कि हिंदी स्वाधीनता के बाद जिस तरह की प्रचार प्रसार की प्रक्रिया से गुजर रही है, उसमें सफलता संदिग्ध है। क्योंकि उसके पीछे ह्रदय की भावना नहीं है।

उन्होंने कहा कि वो नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से हिंदी को लेकर आशान्वित हैं। वो सतत प्रयास भी कर रहे हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को यथोचित गर्व और आत्मसम्मान का स्थान मिले। वे वैश्विक मंचों पर अधिकतर हिंदी में ही बोलते हैं और भारतीयय भाषाओं से उद्धरण देते हैं। नई शिक्षा नीति में भी भारतीय भाषाओं को सम्मान मिल रहा है।

उल्लेखनीय है कि ‘हिंदी हैं हम’ दैनिक जागरण का अपनी भाषा के संवर्धन के लिए चलाया जानेवाला एक उपक्रम है। विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर ‘हिंदी हैं हम’ के अंतर्गत एक सप्ताह तक विश्व के अलग अलग देशों के हिंदी विद्वानों और हिंदी सेवियों के साथ बातचीत अपने पाठकों के सामने लेकर आ रहा है। इसका समापन 15 जनवरी को होगा।