नई दिल्ली:  गीतांजलि श्री के नए उपन्यास 'रेत समाधि' पर राजकमल प्रकाशन द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में परिचर्चा का आयोजन हुआ. वक्ताओं ने रेत-समाधि को हर साधारण औरत में छिपी एक असाधारण स्त्री की महागाथा बताने के साथ ही साथ संयुक्त परिवार की तत्कालीन स्थिति, देश के हालत और सामान्य मानवीय नियति का विलक्षण चित्रण किया है. इस परिचर्चा में पत्रकार व लेखिका मृणाल पाण्डे, कवि प्रयाग शुक्ल, प्रोफेसर हरीश त्रिवेदी, आलोचक रविन्द्र त्रिपाठी व लेखिका गीतांजलि श्री वक्ता के रूप में उपस्थित थी. कार्यक्रम का संचालन आशुतोष कुमार ने किया. उन्होंने परिचर्चा शुरुआत करते हुए कहा कि गीतांजलि श्री के कहानी लेखन का एक अलग ही अंदाज़ है. उनकी कहानियों में साथ-साथ एक पूरा जीवित संसार चलता है. आलोचक रविन्द्र त्रिपाठी का कहना था कि यह वक्त हिन्दी साहित्य में एक बड़ी सृजनात्मकता का समय है.यह उपन्यास भी एक नया विमर्श पैदा करता है. हिंदी में इस तरह के उपन्यास बहुत ही कम लिखे गए हैं. मृणाल पाण्डे ने परिचर्चा में अपनी बात रखते हुए कहा कि यह उपन्यास सारी सरहदों को निरर्थक बना देने वाला और साथ ही निरर्थक चीजों को एक साथ जोड़ कर सार्थक बना देने वाला है. उन्होंने कहा कि इस उपन्यास में मां की उपस्थिति काफी मार्मिक है. मां का जाना एक तरह से मुक्तिदायक भी है और दर्ददायक भी. हरीश त्रिवेदी ने कहा, गीतांजलि श्री की भाषा में जो दक्षता और अविष्कारिता है उसका आनंद आप हर पन्ने पर ले सकते हैं. भाषा का प्रयोग अद्भुत है, कई नए-नए मुहावरों को इस उपन्यास में गढ़ा गया है. हिंदी में जितने रंग और रूप होते हैं वे इस पुस्तक में दिखते हैं.
प्रयाग शुक्ल ने कहा कि यह उपन्यास भरोसा दिलाता है कि सांसों पर कब्ज़ा करने वालों और उनको कुचलने वालों के खिलाफ भी लिखा जा रहा है. उन्होंने कहा कि मैंने इस उपन्यास पर लिखा है तथा कई बार और लिखना चाहता हूं. लेखिका गीतांजलि श्री ने इस उपन्यास को लिखते समय के अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि मैंने बहुत लम्बे अरसे को इस कृति के साथ जीया है. कभी-कभी मुझे लगा कि इस उपन्यास को लिखते-लिखते मैं भी रेगिस्तान में रेत की समाधि बन गई हूं. कितने किरदार, कहानियां और हवाएं चली आई और यह उपन्यास बन पड़ा.आगे उन्होंने कहा कि मेरी परम्परा,समाज, मेरे पूर्वज लेखकों और मेरे समकालीन लेखकों से हौसला मिला और यह कृति बनती गई. उन्होंने उपन्यास के एक अंश का पाठ भी किया. कथा लेखन की एक नई छटा है इस उपन्यास में. इसकी कथा, इसका कालक्रम, इसकी संवेदना, इसका कहन, सब अपने निराले अन्दाज़ में चलते हैं. हमारी चिर-परिचित हदों-सरहदों को नकारते लांघते. जाना-पहचाना भी बिलकुल अनोखा और नया है यहां. इसका संसार परिचित भी है और जादुई भी, दोनों के अन्तर को मिटाता. काल भी यहां अपनी निरंतरता में आता है. हर होना विगत के होनों को समेटे रहता है, और हर क्षण सुषुप्त सदियां. मसलन, वाघा बार्डर पर हर शाम होनेवाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवादी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं 'कत्लेआम के माज़ी से लौटे स्वर' और संयुक्त परिवार के रोज़मर्रा में सिमटे रहते हैं काल के लंबे साए. और सरहदें भी हैं जिन्हें लांघकर यह कृति अनूठी बन जाती है.