मेरी तो बचपन से ही भाषा, साहित्य और कलाओं में रुचि थी और अध्यापक बनना मेरी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी। लेकिन बचपन में मेरा हाथ देख कर एक ज्योतिषी ने पिताजी को बताया था कि यह इंजीनियर बनेगा और बस पिताजी मुझे इंजीनियर बनाने पर तुल गए थे। इसके दो कारण और भी थे एक तो यह कि बेटे को इंजीनियर या डॉक्टर बनाना उस जमाने में मध्यवित्त परिवारों के अभिभावकों का अल्टीमेट सपना होता था। इसलिए बड़ा बेटा किसी तरह इंजीनियर बन जाए तो उम्मीद की जाती थी कि पूरे परिवार का उद्धार हो जाएगा। और दूसरे, स्वतंत्रता आंदोलन, स्वदेशी, सरस्वती, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और छायावाद के उत्कर्ष के उस जमाने में भी मेरे पिताजी जैसे लोग भी समझते थे कि सूर, कबीर, मीर, नजीर के यह वंशज तो पैदा ही भूखों मरने के लिए होते हैं।….

 यह दुनिया मेरे जैसे सामान्य प्रतिभाशाली लोगों से पटी पड़ी है, जिन्होंने सिर्फ मिसफिट होने की वजह से अपनी जिंदगी को मिट्टी कर लिया  या कर रहे हैं। अगर उन्हें सही जगह मिल जाती तो संभव था कि वे भी कुछ कर दिखाते। कम से कम मरते-मरते तो नहीं जीते। हमारा देश एक ऐसी विशाल मशीन की तरह है, जिसमें पुर्जे तो बहुत शानदार हैं पर सब गलत जगह फिट किए हुए हैं। जिसे कहते हैं 'स्क्वायर पैग इन द राउंड होल' या 'राउंड पैग इन द स्क्वायर होल!बहुत कम लोग होते हैं जो इस बाड़े बंदी को तोड़कर बाहर निकल पाते हैं या इस में रहते हुए भी कुछ अश्रुतपूर्ण और चमत्कार पूर्ण कर दिखाते हैं।…

काम में मेरे नकारा और निकम्मा होने को मेरे साथी बगैर जरा भी नाक भौं सिकोड़े निभा लेते थे। क्योंकि मैं दूसरी चीजों से उनकी यत्किंचित क्षतिपूर्ति कर देता था। मसलन मेरे अलावा सारे विवाहित थे और नाइट ड्यूटी करने को अनिच्छुक और मैं खुशी-खुशी उनसे ड्यूटी बदल लेता था और महीनों लगातार नाइट ड्यूटी करता रहता था। नाइट ड्यूटी में टेलीफोन सुनने और शिकायत दर्ज कर लेने के अलावा कोई खास काम नहीं होता था। इसमें यह फायदा भी था कि मुझे पढ़ने लिखने आवारागर्दी करने और यूनियन या पार्टी का काम करने के लिए पूरा दिन मिल जाता था।

स्वयं प्रकाश जी के निधन पर जागरणहिंदी की ओर से श्रद्धांजलि

(राजपाल एंड संज से प्रकाशित किताब 'धूप में नंगे पांव' का अंश)