हाजीपुर:  वरिष्ठ रंगकर्मी क्षितिज प्रकाश लंबे अरसे से रंगमंच में सक्रिय हैं। वे अभिनेता, निर्देशक , अभिकल्पक या कहें संपूर्ण रंग शख्सियत हैं। उन्होंने लोगों के घर घर जाकर एकल प्रस्तुति का एक अभिनव प्रयोग किया है। उन्होंने जागरण हिंदी से खास बातचीत की। 

मैं 1975 में हाजीपुर  रेलवे के बाल रंगमंच से जुड़ा, उसके बाद 1981 में  प्रो.उमाकांत वर्मा जी ने इप्टा से जोड़ा. 1987-88 में 'विशालपटना से जुड़ा। उसके बाद ' निर्माण ' पटना से जुड़ा. हाजीपुर में तो थियेटर ज़िंदा मात्र है. कुछ नए लोग अच्छा काम कर रहे है, शिल्प और तकनीक मज़बूत हुआ है कुछ लोग ही कंटेंट को इसके साथ बचा पाते है। संस्थाओं  की जो मर्यादा  और अनुशासन  था, वो वो अब नहीं दिखता है. अभिनेताओं का एक संस्था से दूसरे संस्था के साथ  अच्छा मेल जोल था। अब अभिनेताओं  का अभाव भी दिखता  है और शॉर्टकट  फ़ॉर्मूलेबाज़ी का जोर बढ़ा है ।पटना और पटना के आसपास  भी प्रेक्षागृह, अभिनेता, अभिनेत्री, तकनीकीशीयन्स वगैरह का आभाव भी तो है ।

 मेरे दिमाग में रंगमच  के लिए एक कॉन्सेप्ट आया कि जब तक  इस धरती पर एक प्रेक्षक और एक अभिनेता है रंगमंच नहीं मर सकता । इसी कॉन्सेप्ट को पकड़ मैंने नए-पुराने प्रेक्षकों के घर जाना शुरू किया और इसका नाम 'हस्तक्षेप' रखा। इस नवीनतम शैली में  मुझे अभी तक सफलता मिली है। हर महीने  दो से चार प्रस्तुतियां करूँगा।  इससे पुराने प्रेक्षकों के साथ नए और समर्थ   प्रेक्षक भी बन सकेंगे। जिनके  लिए अच्छी और मज़बूत  प्रस्तुति करनी होगी । 

मैं 1970 से अबतक  का रंगमंच देख रहा हू। हर काल अपनी स्थितियों  व परिधियों  में श्रेष्ठ रहा है पर 1970 से 1990 का दौर बड़ा क्रन्तिकारी रहा।  इप्टा की इसमें बड़ी भूमिका रही  है जिसने रंगमंच को जनगण का मुखर मंच बनाया ,एक खास पहचान और प्रतिष्ठा दिलाई। 

 पुराने समय में लोग बड़ी तन्मयता,श्रद्धा,विश्वास  और अनुसाशन के साथ काम करते थे .पैट्रोमैक्स पकड़ना ,पर्दा खींचना,प्रॉम्प्टिंग करना वगैर। अब तकनीक का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। प्रोपटिंग ख़त्म हो गया और फिल्मों  की तकनीक का इस्तेमाल चलन में आ गया। फ्रीज ,स्लोमोशन, फेडआउट, फेडिन वगैरह …पर आस्था , विश्वास , कर्मठता , अनुशासन, कड़ी मिहनत और विश्वास में कमी  आई है। चमत्कृत करनेवाले  नाटक  देखने  को मिलता है ।  कथानक पर शिल्प हावी होने लगा है। बिहार के हिंदी नाटकों में हिंदी के उच्चारण  दोष बहुतायत  देखे  जा सकते है .शोधात्मक और नये हिंदी नाटकों का घोर आभाव है ।

नुक्कड़ नाटक जो कभी एक सांस्कृतिक  हथियार हुआ करता था, जिसका स्वाद सारी सरकारों ने चखा है, यही वो वजह है कि सरकारें  साजिश के तहत इसे  सरकारी मशीनरी  के रूप में इस्कतेमाल करने लगी है. 

(अनीश अंकुर से बातचीत पर आधारित)